मदर्स डे : देश भर में बढ़ते वृद्धा आश्रम खड़े कर रहे हैं कई सवाल ?

  जौनपुर। देश सहित पूरी दुनिया में रविवार को मदर्स डे हर्षोल्लास से मनाई गई आज हर कोई माँ की यादों को समेटे हुए है उन्हें याद कर रहा है जरा सोचिए कि मां अनमोल है उसके चरणों की धूल भी इंसान के लिए अनमोल है। माँ के कदमों के नीचे जन्नत है। माँ के दूध के कर्ज से कोई भी इंसान मुक्त नहीं हो सकता। प्रसव पीड़ा के समय माँ की दर्द से निकली चीख भी हर कोई अदा नहीं कर सकता है। गर्भ में धारण से लेकर पैदा होने के 9 माह तक जिस बोझ को माँ झेलती है, उसके कर्ज की अदायगी करना नामुमकिन है। जन्म देने वाली मां की ममता को बार बार सलाम। 


परंतु आज सबसे बड़ा कड़वा सच यह है कि क्या सिर्फ मदर्स डे पर माँ को याद करना ही माँ के प्रति सच्ची सेवा है।पर आज हमारा समाज किस ओर जा रहा है? युवा पीढ़ी को क्यों भार लग रहे हैं माता-पिता? पश्चिमी सभ्यता के लोग हमारे देश की संस्कृति को अपनाने के लिये आतुर हैं, वहीं हमारी युवा पीढ़ी कहीं न कहीं अपनी संस्कृति को भूलती जा रही है। आज जहां गली-गली में वृद्धाश्रम खुल रहे हैं, उससे तो यही कहने पर मजबूर हैं कि क्या यही हमारी प्रगति हैं? क्या हमारी युवा पीढ़ी अपने कर्तव्य से विमुख होती जा रही है? क्या आज की युवा पीढ़ी स्वार्थी हो गयी है?यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज अगर सोशल मीडिया नही होता तो शायद ही मदर्स डे को कोई याद करता। 


 शिक्षिका सविता का कहना है कि रोते हुए संसार में आई, तब मां ने गोद में उठाया, रोते हुए ससुराल गई तब सास ने गले लगाया मा ने जीवन दिया तो सासु मां ने जीवनसाथी दिया मां ने चलना बैठना सिखाया तो सासु मां ने समाज में उठना बैठना सिखाया मा ने घर में काम सिखाया तो सासु मां ने घर चलाना सिखाया मां ने कोमल कली की तरह संभाला तो सासु मां ने विशाल वृक्ष जैसा बनाया मां ने सुख में जीना सिखाया तो सासु मां ने दुख में जीना सिखाया मां ईश्वर समान है तो सांस गुरु समान है।इसलिए एक दिन और एक क्षण में मां को याद कर हम सभी लोग पूरा तख्त नहीं पलट सकते है हम सभी को माताओं के के हमेशा तैयार रहना चाहिए क्योंकि मातृ शक्ति एक बहुत बड़ी चीज है जिसका कर्ज हम जीवन भर नही उतार सकते हैं।

 
सखी वेल्फेयर की संस्थापक प्रीति गुप्ता का कहना है कि मां का अहसास ही जीवन में एक अलग तरह का अहसास है। हर आह के साथ माँ की याद का आना एक स्वाभाविक तरीका है। किसी भी तरह के दुःख में यदि किसी का नाम आता है तो वह माँ का नाम आता है। मैंने बहुत करीब से देखा है। जिस बच्चे के सर से माँ आँचल उठ जाता है, उसकी जिंदगी आवारा सी हो जाती है। माँ बच्चों के लिए एक मकान की बुनियाद की तरह होती है लेकिन टेक्नोलॉजी और आधुनिक विकास ने समाज के अंदर से संवेदना ही खत्म कर दिया है। बाजारवाद की संस्कृति ने मनुष्य को विनियम की वस्तु बना डाला है। जहाँ हर काम लाभ कमाने के उद्देश्य से ही करने लगा है। ऐसे हालात में प्रेम और संवेदना का मर जाना स्वाभाविक है।

मां दुर्गा ग्रामीण फाउंडेशन की प्रबंधक नीरा आर्या का कहना है कि प्रकृति का श्रृंगार है मां। बच्चों का दुलार है मां। जीवन संरचना का आधार है मां। हर पीड़ा सहे और प्यार करे, वही मां है। जितनी बखान की जाय, वह कम है। ऐसे होती हैं मां पर आज कल लोगो का सोशल मीडिया पर बधाई देने का जो चलन है, उसे मैं नकारती हूं। लड़कियां सेवा करती हैं लेकिन वहीं लड़कियां जब दूसरे घर की बहू बनती हैं तो लोग बिल्कुल नहीं देखना चाहते है। आज देश में बड़ते वृद्धा आश्रम कही न कही हमारी संस्कृति पर सवाल खड़े कर रहे है। 


समाजसेवी का धनरा देवी का कहना है कि मां मेरे लिए तो भगवान से भी बढ़कर है भगवान ने तो सिर्फ हमारा सृजन किया है पर माने जो 9 महीना आपने उधर में रखा खाया कि नहीं पता नहीं पर हमें किसी प्रकार की कोई कष्ट ना हो इसका ख्याल रखा अपने जिले में सोती रही और हमें सूखे में सुलाती रही ताकि हम बीमार ना हो सके हम स्वस्थ रहें मां के कर्ज को सात जन्म लेकर भी चुका नहीं सकती हूं आज जो भी कुछ हूं मेरी मां के आशीर्वाद की वजह से हूं उनकी कमी आज के ही दिन नही बल्कि प्रतिदिन होती है। 

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