दलित राजनीति में वैचारिक विपन्नता का समावेश

  प्रभुनाथ शुक्ल
देश और समाज के विकास में वैचारिक नीति अपना अहम स्थान रखती है। सुविचार ही अच्छे समाज का निर्माण करते हैं। हम वैचारिक गंदगी से समाज का का बदलाव नहीं कर सकते हैं। किसी सभ्यता, समाज और संस्कृति के निर्माण में वहां के लोगों की वैचारिक नीति और सिद्धांतों ने मुख्य भूमिका निभायी। लेकिन बदले दौर में भारतीय राजनीति का कोई वैचाारिक चेहरा नहीं है। वह विचार, नीति और सिद्धांतों से खोखली है। उसका अपना कोई उद्देश्य नहीं है। उसकी अपनी कोई संकल्पना नहीं है। जिसके चलते भारतीय राजनीति अपने लक्ष्य से भटक चली है। जिस वैचारिक नीति पर राजनीतिक दलों ने समाज सुधार का वीणा उठाया था। वह सिर्फ सत्ता की कुर्सी तक घूमती नजर आती है। समाज के बदलाव की सोच को भूला दिया गया है। भारत रत्न पर बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती की तरफ से आया बयान कहीं से भी सम्माननीय नहीं कहा जा सकता है। यह समाज और जाति व्ययवस्था को बढ़ाने वाला है। इस तरह की ओछी बयानबाजी समाज को बांटने का काम करती है। जबकि यहीं हमारे भारतीय राजनीति की पहचान बन गयी हैं।

बदलाव के लिए खुद की सोच बदलें
किसी भी बदलाव के लिए पहले खुद की नीति और सिद्धांतों का सतही तौर पर अध्ययन जरुरी है। भारत विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों का देश है। यहां समाजिक असमानता की खाई भी गहरी है। जरा सी उल्टी हवा बहने से इसका बदलता स्वरुप फिर वापस लौट जाता है। समाज में सबको बराबरी का हक मिलना चाहिए। भारत हमेंशा से सामाजिक समानता, समरसता, विकासवाद का प्रणेता रहा है। लेकिन दलित समाज सुधार के नाम पर हमें गलत विचारधाराओं से बचना चाहिए। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार कई बार बनी। लेकिन दलित समाज का विकास आज भी हासिए पर है। संबंधित जातिया समाजिक असमानता की आज भी शिकार हैं। बस्तियों में गंदगी, अशिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का सर्वथा अभाव है। लेकिन इसके लिए दलित नेता अगड़ी जातियों को केवल जिम्मेदार ठहराते हैं। यह बात सर्वथा अनुचित और अप्रासंगिक है। जाति व्यवस्था और छूआ-छूत में कमी आयी है। समाज में शिक्षा के प्रचार से यह भेद मिट रहा है। लेकिन यह किसी की भूल होगी कि हमारी नीतियों के चलते समाज बदल रहा है। समाज में बदलाव एक सोच के चलते होता है। अगर  अगड़ी जातियां इस बदलाव को न स्वीकारती तो यह बदलाव संभव नहीं था। उन्हें सर्वजनहिताय सर्वजन सुखाए के अपने ही नारे पर विचार करना होगा।

गाली से हम नहीं बदल पा सकते सम्मान
भारत रत्न पर मायावती की तरफ से आयी टिप्पणी बेहद गलत है। यह बात सच है कि समाज में सभी के योगदान का सम्मान होना चाहिए। लेकिन किसी विचारधारा से चिपक कर और दूसरे जाति, धर्म और संप्रदाय से संबंधित लोगों को अपमानित कर हम उनके कार्यों और योगदान को नहीं भूला सकते हैं। दलित समाज सुधारकों के लिए भारत रत्न की मांग करना मायावती के लिए जायज हो सकता था। लेकिन समााज सुधारक को खास जाति से जोड़ कर यह मांग करना सर्वथा अनुचित है। सवाल उठता है कि स्वाधीनता आंदोलन से लेकर और बाद में में महामना पंडि़त मदन मोहन मालवीय के समाज सुधारों को क्या झुठलाया जा सकता है। उन सुधारों से क्या दलित समाज को अलग किया जा सकता है। क्या उस सुधार का लाभ दलित समाज को नहीं मिल रहा है। दुनिया के सबसे बड़े शैक्षणिक संस्थान काशी हिंदू विश्वविद्यालय से क्या दलित समाज नहीं जुड़ा है। समाजिक विकास का असर किसी एक खास समाज पर नहीं पड़ता है। उसका असर पूरे समाज पर होता है। सामाजिक बदलाव सर्वांगीण होता है। ऐसी स्थिति पर हम निहित सोच के जरिए किसी समाज के उत्थान का सपना नहीं देख सकते हैं। हमें समाज के बदलाव की सहजता स्वीकारनी होगी। हम गाली देकर समाज का बदलाव नहीं कर सकते हैं। 

समाज सुधार की यह कैसा विचारधारा
आधुनिक भारतयी राजनीति में मायावती का अहम स्थान हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश में वे दलित समाज की बड़ी नेता हैं। प्रदेश में दलित रानीति की सियासत कर इसका उन्होंने लाभ भी उठाया है। वे प्रदेश की राजनीति की बड़ी चेहरा हैं। लेकिन उनकी नीतियां और दलित विकास का सिद्धांत समझ में नहीं आता है। सवाल उठता है कि क्या सिर्फ दलित समाज सुधारकों की पत्थरों की मूर्तियां लगाकर ही समाज सुधार किया जा सकता है। क्या दलित समाज सुधारकों को बांट कर किसी समाज का विकास किया जा सकता है। क्या बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर, अहिल्याबाई होल्कर, ज्योतिबा राव फूले की सामाजिक सुधार की विचारधारा को दलित पंथी विचार का खोल पहना कर समाज को क्या एक बांटने की कोशिश नहीं है। भारतयी राजनीति और समाज सुधार में इन नेताओं को खास योगदान है। सभी जातियों में इन महापुरुषों का सम्मान है। क्या डा. भीमराव अंबेडकर को भारत रत्न से नहीं सम्मानित किया गया है।

दलित राजनीति में वैचारिकता का अभाव
कुछ ऐसी ही स्थिति की शिकार हमारी दलित राजनीति हो चली है। यहां वैचारिकता का अभाव हो चला है। सत्ता के लिए दूसरे को गाली देकर एक खास समाज के लोगों की भावनाओं को भड़का कर लोकतांत्रित व्यवस्था में मत विभाजन के जरिए खलल डालने की कोशिश की जा रही है। दलित राजनीति सिर्फ बस सिर्फ सिंहासन के दायरे तक सिमटती नजर आती है। इसका सबसे बड़ा चेहरा बहुजन समाज पार्टी गंदे विचारों की शिकार हो चली है। वह भारत रत्न जैसे सम्मान पर भी जाति की राजनीति कर समाज की पटती खाई को और बढ़ाना चाहती है। पंडि़त मदन मोहन मालवीय और अटल बिहारी बाजपेयी को दिए गए भारत रत्न सम्मान पर जिस तरह बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का बयान आया। उसमें कहीं से भी दलित कल्याण की चिंता नहीं दिखती है। यह ओछी और गंदी राजनीति का परिचायक है। पहले तो बहुजन की नेता अपनी नीति साफ करें की वह दलित राजनीति और दलितो उत्थान की असली नेता हैं की नहीं। क्योंकि उनकी राजनीतिक अभिलाषा उनकी इस सोच से हट कर है।

दलित समाज सुधार का यह कैसा नारा
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जागी दलित चेतना ने सामाजिक बदलाव में खास भूमिका निभायी है। मायावती दलित वोट बैंक के चलते कई बार सत्ता के शीर्ष सिंहासन तक पहुंच चुकी हैं। कभी मायावती ने यह नारा दिया था...तिलक, तराजू और तलवार......लेकिन बदले वक्त के सा यह राजनीतिक नारा बदल गया...ब्राहमण शंख बजाएगा हाथी दौड़ा जाएगा। 2007 के यूपी विधान सभा चुनाव में मायावती ने ब्राहमण और दलित गठजोड़ के चलते सबसे बड़ी सफलता हासिल की थी। इसे मायावती की सोशल इंजीनियरिंग कहा गया था। यह सामाजिक बदलाव की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी गयी थी। देश की मीडिया में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग पर खूब लिखा पढ़ा गया। लेकिन लोकसभा के आम चुनावों यह धार कमजोर होती दिखी। यूपी के उपचुनाव में उन्होंने किनारा कर लिया। जिसका लाभ सीधे समाजवादी पार्टी को हुआ। एक बार उन्हें फिर लगने लगा है कि अगड़ी जातियों के खिलाफ जहर उगल कर दलित राजनीति आने वाले यूपी विस आम चुनावों में चमकायी जा सकती है। लेकिन यह उनकी भूल होगी। अब खास जाति से वह सत्ता के सिंहासन तक नहीं पहुंच सकती हैं। लंबे समय तक उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस का साथ दिया। लेकिन तब भारत रत्न की मांग नहीं किया। अब यह सवाल उठाना कहा से उचित होगा। इस पर उन्हें विचार करना होगा। लोक सभा के आम चुनावों मंे करारी हार का सामना करने के बाद एक बार फिर उनका खांटी दलित प्रेम भारत रत्न पर सवाल उठाने पर जाग गया है। अपनी दो मुंही राजनीति पर उन्हें विचार करना होगा। तभी वे दलित समाज सुधार की असली मसीहा बन सकती हैं। दलित समाज सुधारकों के नाम पर मायावती एक ओछी राजनीति कर दलितों को खुश करना चाहती हैं। लेकिन यह अच्छी राजनीति का परिचायक नहीं है। हम किसी के समाजिक कार्यों को जातिगत बंधनों में बांध कर समाज का बदलाव नहीं कर सकते हैं। भारत का समाज बदल रहा है। हमें गंदे विचारों को त्यागना होगा। भारत रत्न देश का सर्वोच सम्मान है इसे विवादों में नहीं घसीटना चाहिए। दलित राजनीति करने के और भी तरीके हैं। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। इस तरह की वैचारिक गंदगी समाज और बांटती है न की जोड़ती है।
लेखकः स्वतंत्र पत्रकार हैं

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