वतन से मोहब्बत ईमान की निशानी है : हज़रत अली(अ.स.).



वतन से मोहब्बत ईमान की निशानी है : हज़रत अली(अ.स.)


सभी इंसान या तो तुम्हारे धर्म भाई हैं या फिर इंसानियत के रिश्ते से भाई हैं | हजरत अली (अ.स)


आज मुसलमानो के खलीफा हज़रत अली की शहादत की रात है | अली (अ ) के चाहने वाले ही नहीं ज़मीन औ आसमान आज ग़मज़दा है | आज दुनिया से वो आलिम चला गया जो कहता था जो पूछना है पूछ लो मुझे इस दुनिया से ज़्यादा उस दुनिया के रास्ते मालूम हैं जहां हम सब का ठिकाना हमेशा के लिए है | 

 आज वो शब् है जब दुनिया को यह मालूम हो गया की सजदे में जिसका सर था वो हक़ में था सच्चा मुसलमान था और जो इब्ने मुल्जिम लईन तलवार ले के मस्जिद में आया और हज़रत अली (अ ) पे उस वक़्त वार किया जब वे अपने रब का सजदा कर रहे थे वो दहशत गर्द था | 

 शासक होने के बाद भी वह जिस सादगी से जीवन गुजारते थे, वह दुनिया वालों की नजर में आज भी एक मिसाल है। वे दिनों में तमाम विवादों को निपटाने में न्यायमूर्ति थे, तो रात के अंधेरे में पीठ पर रोटियां लादकर निरीह एवं असहाय लोगों की मदद करते थे।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी साहित्यकार ओविल्सनर कहते हैं कि अली का व्यक्तित्व पैगम्बर मुहम्मद के जीवन का दर्पण था। वि‌र्श्व के महानतम विचारक एवं दार्शनिक विस्मित है कि इतने अधिक गुण एक साथ हजरत अली में कैसे विद्वमान है
हज़रत अली अलैहिस्सलाम बड़ी ही कोमल प्रवृत्ति के स्वामी थे। उनकी यह विशेषता उनके कथन और व्यवहार दोनों में देखने को मिलती है। हजरत अली ने वैज्ञानिक जानकारियों को बहुत ही रोचक ढंग से आम आदमी तक पहुँचाया। एक प्रश्नकर्ता ने उनसे सूर्य की पृथ्वी से दूरी पूछी तो जवाब में बताया की एक अरबी घोड़ा पांच सौ सालों में जितनी दूरी तय करेगा वही सूर्य की पृथ्वी से दूरी है. उनके इस कथन के चौदह  सौ सालों बाद वैज्ञानिकों ने जब यह दूरी नापी तो 149600000 किलोमीटर पाई गई। अगर अरबी घोडे की औसत चाल 35 किमी/घंटा ली जाए तो यही दूरी निकलती है।

हजरत अली (अ.स) ने अपनी खिलाफत के समय अद्धितीय जनतांत्रिक सरकार की स्थापना की। उनके शासन का आधार न्याय था। समाज में असत्य पर आधारित या किसी अनुचति कार्य को वे कभी भी सहन नहीं करते थे। उनके समाज में जनता की भूमिका ही मुख्य होती थी और वे कभी भी धनवानों और शक्तिशालियों पर जनहित को प्राथमिक्ता नहीं देते थे। जिस समय उनके भाई अक़ील ने जनक्रोष से अपने भाग से कुछ अधिक धन लेना चाहा तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने पास रखे दीपक की लौ अपने भाई के हाथों के निकट लाकर उन्हें नरक की आग के प्रति सचेत किया। वे न्याय बरतने को इतना आवश्यक मानते थे कि अपने शासन के एक कर्मचारी से उन्होंने कहा था कि लोगों के बीच बैठो तो यहां तक कि लोगों पर दृष्टि डालने और संकेत करने और सलाम करने में भी समान व्यवहार करो। यह न हो कि शक्तिशाली लोगों के मन में अत्याचार का रूझान उत्पन्न होने लगे और निर्बल लोग उनके मुक़ाबिले में न्याय प्राप्ति की ओर से निराश हो जाएं।

उनकी दृष्टि में दरिद्रता से बढ़कर आत्म-सम्मान को क्षति पहुंचाने उनकी दृष्टि वाली कोई चीज़ नहीं होती। वे कहते हैं कि दरिद्रता मनुष्य की सबसे बड़ी मौत है। यही कारण था कि अपने शासनकाल में जब बहुत बड़ा जनकोष उनके हाथ में था तब भी वे अरब की गर्मी में अपने हाथों से खजूर के बाग़ लगाने में व्यस्त रहते और उससे होने वाली आय को दरिद्रों में वितरित कर दिया करते थे ताकि समाज में दरिद्रता और दुख का अंत हो सके।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम सदा ही कहा करते थे कि मेरी रचना केवल इसलिए नहीं की गई है कि चौपायों की भांति अच्छी खाद्य सामग्री मुझे अपने में व्यस्त कर ले या सांसारिक चमक-दमक की ओर मैं आकर्षित हो जाऊं और उसके जाल में फंस जाऊं। मानव जीवन का मूल्य अमर स्वर्ग के अतिरिक्त नहीं है अतः उसे सस्ते दामों पर न बेचें। हज़रत अली का यह कथन इतिहास के पन्ने पर एक स्वर्णिम समृति के रूप में जगमगा रहा है कि ज्ञानी वह है जो अपने मूल्य को समझे और मनुष्य की अज्ञानता के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह स्वयं अपने ही मूल्य को न पहचाने।

हज़रत  अली की सबसे मशहूर व उपलब्ध किताब नहजुल बलागा है, जो उनके खुत्बों (भाषणों) का संग्रह है. इसमें भी बहुत से वैज्ञानिक तथ्यों का वर्णन है। हजरत अली (अ.स) को मस्जिद ऐ कुफा में इब्न ऐ मुलजिम नाम के गद्दार व्यक्ति ने शहीद कर दिया और वहीं नजफ़ में उनका रौज़ा आज भी मौजूद है |हज़रत इमाम अली सन् 40 हिजरी के रमज़ान मास की 19 वी तिथि को जब सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए गये तो सजदा करते समय अब्दुर्रहमान पुत्र मुलजिम ने आप के ऊपर तलवार से हमला किया जिस से आप का सर बहुत अधिक घायल हो गया तथा दो दिन पश्चात रमज़ान मास की  21 वी रात्री मे नमाज़े सुबह से पूर्व आपने इस संसार को त्याग दिया।

समाधि: आपकी शहादत के समय स्थिति बहुत भयंकर थी। चारो ओर शत्रुता व्याप्त थी तथा यह भय था कि शत्रु कब्र खोदकर लाश को निकाल सकते हैं। अतः इस लिए आप को बहुत ही गुप्त रूप से दफ़्न कर दिया गया। एक लम्बे समय तक आपके परिवार व घनिष्ठ मित्रों के अतिरिक्त कोई भी आपकी समाधि से परिचित नही था। परन्तु एक लम्बे अन्तराल के बाद अब्बासी ख़लीफ़ा हारून रशीद के समय मे यह भेद खुल गया कि इमाम अली की समाधि नजफ़ नामक स्थान पर है। बाद मे आप के अनुयाईयों ने आपकी समाधि का विशाल व वैभव पूर्ण निर्माण कराया। वर्तमान समय मे प्रतिवर्ष लाखों दर्शनार्थी आपकी समाधि पर जाकर सलाम करते हैं।

लेखक एस एम् मासूम 

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