अनगिनत हैं लाभ फिर भी लद गए दोना पत्तल के दिन

जौनपुर। दोना पत्तल में भोजन करना हमारे संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा हैं लेकिन आज की पीढ़ी ने इसे दकियानूसी मानसिकता का प्रतीक मानकर इससे किनारा कर लिया है। लोगों का यह विचार वास्तव में संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है जो तात्कालिक लागत- लाभ और सुलभता पर केंद्रित है।

आज हम सीधे - सीधे तत्काल लागत - लाभ से प्रेरित होकर ही ऐसा करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में  थर्माकोल के बने दोना पत्तलों ने पलाश और महुये की पत्तियों से बने दोना पत्तलों के बाज़ार को लगभग समाप्त कर दिया है। जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण थर्माकोल के बर्तनों को सस्ता होना माना जाता है, लेकिन इनमें भोजन करने का हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल पड़ता है त्वचा की बीमारियों से लेकर कैंसर की भी बीमारी हो सकती है।इन बर्तनों में आकर्षक रूप से बनाये जाने वाले सिल्वर प्लेट के लिए जिन केमिकल का प्रयोग किया जाता है वे तो और खतरनाक हैं।
महुये और पलाश के बने दोना पत्तल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये इको-फ्रेंडली माने जाते हैं क्योंकि ये बायोडिग्रेडेबल होते हैं इन्हें आसानी से मिट्टी में दबाकर जैविक खाद बनाई जा सकती है। इनके प्रयोग से एक तरफ हानिकारक केमिकल से दूरी बनती है और अधिक वृक्ष लगाने को प्रोत्साहन मिलता है तथा स्थानीय स्तर पर लोगों को रोजगार मिलता है। मछलीशहर विकास खंड के चौकी खुर्द गांव के महुये के बगीचे में अक्सर पत्ते तोड़ने के लिए वनवासी आते हैं और पत्तों का गट्ठर लेकर जंघई से वाराणसी शहर को चले जाते हैं पूछने पर बताते हैं कि दोना पत्तल की मांग तो अब रही नहीं ये पत्तल वे पान की दुकानों पर बेचते हैं इन्हीं पत्तों में लपेटकर दुकानदार लोगों को पान देते हैं लेकिन मेनहत के अनुसार उन्हें इन पत्तो का अच्छा मूल्य नहीं मिलता है।आश्चर्य की बात यह है कि पश्चिमी देशों में पाज़िटिव लाइफ स्टाइल का अंग मानते हुए ताजे पत्तल का व्यवसाय बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन भारत में इसके प्रति लोगों की नकारात्मक सोच के चलते इसे दकियानूसी मानसिकता का प्रतीक माना जा रहा है।

यह विकास खंड मछलीशहर के एक गांव की बर्थडे पार्टी का दृश्य है जहां बच्चे मिट्टी और पत्तल के बर्तनों में भारतीय व्यंजनों का आनंद ले रहे हैं।ऐसा करने का मकसद पूछे जाने पर आयोजक ने बताया कि भोजन करने वाले सारे बच्चे जीवन में पहली बार मिट्टी और पत्तल के बने बर्तन में भोजन कर रहे हैं। उद्देश्य मात्र इतना है कि वह अपनी परम्पराओं से परिचित हों।आज की पीढ़ी को परम्पराओं से जोड़ने की जिम्मेदारी पुरानी पीढ़ी की  है।अपनाना और न अपनाना उन पर छोड़ देना चाहिए, लेकिन परिचय ही न करायें तो यह पुरानी पीढ़ी की परम्पराओं और राष्ट्र चेतना के प्रति उदासीनता है।

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