‘‘दंगा और इंसानियत‘‘

आओ हम दंगा...दंगा खेलें
तुम
अल्लाह-ए-अकबर
हम
हरहर महादेव बोले...
खेलना
हम सब का पैदाइशी इल्म है
तभी दंगा ना कोई जुल्म है
हमने जब मिलकर खेला
...तो गोरों का मुंह फेरा
फिर
खुद से खुद में खेला
वतन के टूकड़े कर डाला
तब से हम खेलते आ रहे हैं
खेलना मेरा जूनून है
हमने राम को लेकर खेला
रहिम को लेकर खेला
मंदिर और मस्जिद पर खेला
इस खेल में क्या मिला...?
मुझे पता नहीं
किसका खून बहा
किसके लिए और क्यों...?
किसके राम बेघर हुए
किसके रहीम सुरक्षित
किसकी रोटी जली
किसकी बेटी नुची
जय पराजय के इस खेल में
कौन जीता कौन हारा
मुझे पता नहीं
फिर यह खेल
किसके लिए और क्यों...?
    
कविता
प्रभुनाथ शुक्ल
यूपी
मोेः 8924005444

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