‘‘कागज की कश्ती‘‘

 प्रभुनाथ शुक्ला 
ओ कागज की कश्ती
ओ बचपन की मस्ती
मुझे याद आते है...ं
पचपन की उमर में
बचपन के सपने गुदगुदाते हैं
बारिश के दिनांे में
मुझे मेरा गांव बुलाता है
ओ सावन की मेंहदी
घुंघराली घटाएं...
परदेशी सपनों में याद आते हैंैं
खपरैल का टपकता वह छप्पर
भींगती दादा की खटिया
रात हुक्कों में गुजर जाती थी
वह बरसात मुझे बुलाती है
ओ सावन की कजली ओ काली बदली
गोरी के हाथों में मेंहदी की लाली
नभ को छूती झूलों की डाली
पिया बिन वो विरहन मतवाली
मुझे सब याद आते हैं
सावन के बुलबुले मुझे गांव बुलाते हैं    

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