मानुष की जात है...

रिश्तों का....!

यहाँ रोज ही,
निकल रहा है ज़नाज़ा....
कभी बाप कहता बेटे से...तो...
कभी बेटा कहता बाप से...
झट दूर मेरी नजरों से,
तू चला जा....
जगत में... नर और नारी...दोनों ही...
हो चुके हैं अत्याचारी....
बात-व्यवहार का तोड़ भरोसा...!
हो गए हैं... सब व्यभिचारी...
तौल कहाँ रहा है कोई...?
पुण्य और पाप को....
बस.... संगमरमरी पत्थरों पर...
देखना चाहते हैं सभी,
खुद अपने आप को...!
एक अचम्भा भी,
दिखता है समाज में साला
भले किसी का हो गया हो,
मुँह पूरा का पूरा काला...
पर देर नहीँ लगती है उसे भी,
बदलने में कोई पाला....
देखता हूँ... हर कोई यहाँ....!
आज तो... हुआ गुमराह है...
कौन समझा सकता है भला...?
किसी को यहाँ...
खुद बुरा है वही या बुरा हमराह है...
चुप रहेगा हर वक्त,
लगाकर मुँह पर वह ताला...पर..
अज़ीब ही मानुष की जात है...
मौका मिला नहीं कि,
हर किसी की...!
भरे समाज में टोपी वह उछाला...
जिनके लिए पिया गया...!
विष भरा प्याला.....
जिनके लिए जतन से... जुटाया...!
दोनों जून का निवाला...
मानुष की ही जात है... वह भी...
नज़र बचा के... नज़रों में धूल डाला...
मरहम लगाया जिसको मन से,
दिया कन्धों का सहारा....
बेदर्द निकला इस कदर कि...
ताउम्र... ज़ख्म मेरे...
हरे के हरे रखा.... और...
छिड़कता ही रहा उस पर नमक साला
जाहिर है... मानुष की जात है,
मन मलिन है सदा... और...
दिल... दिमाग दोनों से... है काला...!
आज की तो यही रीति है,यही नीति है
सिद्धान्तों का भी निकला है दिवाला..
दोष भी हम किसका कहें दोस्तों...
यह मानुष की जात है जो...!
रम चुका है अँधेरे से इतना...
कि भूल बैठा है अब....
अपने अन्दर का उजाला...
भूल बैठा है अब .....
अपने अन्दर का उजाला...

रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज

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