जहां मुर्दे भी दंडवत प्रणाम करते हैं

वाराणसी. वैसे तो काशी में मृत्यु प्राप्त करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है। लेकिन बहुत कम ही लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि दुनियां में एक ऐसी जगह काशी में है, जहां मुर्दे भी दंडवत प्रणाम करते हैं। उसके बाद ही उन्हें मुक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त होता है। 
 दरअसल शास्त्रों में वर्णन मिलता हैं कि मणिकर्णिका घाट पर दाह संस्कार करने से मृतकों को मोक्ष मिलता है। सतुआ बाबा का आश्रम घाट से दस कदम पहले है। इस पवित्र स्थली पर शिव ने वृद्ध बनकर बाबा को दर्शन दिया था। मणिकर्णिका घाट पर उसी के बाद से मुर्दे प्रणाम करने के बाद ही आगे बढ़ते हैं और संस्कार घड़ा भी यही फोड़ा जाता हैं। 
सतुआ बाबा के आश्रम की स्थापना 18वीं शताब्दी में हुई थी। इस आश्रम के अंदर एक शिवाला है जहां 2652 वर्षों पहले विष्णुस्वामी संप्रदाय के आघाचार्य जगत गुरु अनंतश्री विभूषित भगवान विष्णु स्वामी जी महाराज पधारे थे, प्राचीन मानचित्र से इसका विवरण मिला है।
 इस स्थान पर जगत गुरु आदि शंकराचार्य जब अपने गुरु गोविन्दाचार्य जी कि आज्ञा से काशी आए थे तब इसी जगह चांडाल वेशधारी महादेव ने उनकी परीक्षा ली थी। हां सतुआ बाबा का आश्रम है, वहीं आज भी सदियों से एक अद्भुत परंपरा का निर्वहन होता है। सातवें गुरु महामंडलेश्वर संतोष दास ने बताया कि आज भी लोग पहले सतुआ बाबा आश्रम के सामने खड़े होकर संस्कार घट को फोड़ते हैं। उसके बाद शव को घुमाकर दाह संस्कार के लिए मणिकर्णिका महाश्मशान घाट ले जाते हैं। ग्रंथों में वर्णित है कि यहां मृतक (मुर्दा) भी दंडवत करने के बाद ही भगवान शिव से मोक्ष प्राप्ति के लिए तारक मंत्र प्राप्त करता है।

महान संत सतुआ बाबा जो पहले रणछोड़दास महराज उच्च कोटि के साधक थे। इनका जन्म गुजरात के पालिताणा स्टेट के रतनपुर गांव में एक किसान परिवार में 1734 हुआ था। बचपन में इनको लोग जेठा पटेल कहकर पुकारते थे। पालिताणा स्टेट के दीवान बने और नरेश महराजा शूरसिंह ने एक बार इनको आदेश दिया कि जनता से कठोरता से टैक्स वसूले। दीवान जेठा पटेल ने उल्टा यह संदेश राज्य में भिजवा दिया कोई भी किसी तरह का कर नहीं दे। नाराज नरेश शूरसिंह ने जेठा पटेल को राज्य से निकाल दिया। इसके बाद वह प्रयाग आ गए। यही उनकी मुलाकात सिद्ध संत योगीराज पशुरामदास जी महराज से हुई। गुरु से विष्णुस्वामी संप्रदाय की दीक्षा ली। उसके बाद गुरु के आदेश पर वह महाश्मशान मणिकर्णिकाघाट साधना के लिए पहुंच गए। काशी वास के दौरान अक्सर वह चना और गुड़ गरीबों को खिलाया करते थे।
एक दिन काफी बुजुर्ग हो चले एक बाबा ने भिक्षा मांगी। जेठा जी ने तुरंत चना निकाल कर बाबा को दिया। दो सौ साल से भी ऊपर के बुजुर्ग ने उनसे तुरंत कहा कि बुजुर्ग भला चना कैसे खाएगा। जेठा जी ने तुरंत चने को पीसकर सतुआ बुजुर्ग को दे दिया। बुजुर्ग ने उसको खाया और बोला सतुआ ही बांटा करो, फिर वह तुरंत अदृश्य हो गए। इस विरह में उनकी स्थिति बिगड़ने लगी की आखिर बुजुर्ग कौन था। कुछ दिनों बाद बाबा विश्वनाथ ने साक्षात दर्शन दिया और लोगों में सतुआ बांटने को फिर कहा, तभी से जेठा जी महराज का नाम सतुआ बाबा पड़ गया। सतुआ बाबा की ख्याति पूरे देश में फैलने लगी। एक बार चंद्रग्रहण स्नान हेतु पालिताणा के महराज शूरसिंह अपनी महरानी के साथ सतुआ बाबा के दर्शन को पहुंचे। जहां महरानी ने कुटिया में उनको अपना नीलम का हार उपहार स्वरुप देना चाहा, सतुआ बाबा ने मना कर दिया। उसके बाद महराज ने हार का विक्रय कर भव्य आश्रम का निर्माण कराया।
रमेश सिंह ने बताया की परंपरा चली आ रही है, जब भी कोई शव दाहसंस्कार के लिए आता है। उसका संस्कार घड़ा सबसे पहले यही फूटता है। शव को परिक्रमा कराई जाती है। तब महाश्मशान मणिकर्णिकाघाट तक ले जाया जाता है। मुक्ति का मार्ग और तारक मंत्र तभी मिलता है।

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