आफ्टर दीवाली: गांव के बच्चों में अभी भी बची है खुशहाली

 

जौनपुर। दीपावली और होली के दिन जैसे जैसे नजदीक आते इन्तजार की बेसब्री और उत्साह बढ़ता जाता है लेकिन इनके बीतने पर अगले दिन सुबह ही उत्साह का पारा धड़ाम हो जाता है लेकिन ग्रामीण इलाकों में बच्चों की उत्साह अगली सुबह के लिये इस बात को लेकर कायम रहता है कि सुबह होते ही मिट्टी के जले दियों को इकट्ठा करना है। मिट्टी के बुझे दीयों को इकट्ठा करने की होड़ में सबेरे सबेरे बच्चे चीते की दौड़ दौड़ते हैं।दीये इक्ट्ठा करके जलपान के बाद बच्चे इन दीयों से खिलौना बनाना शुरू कर देते हैं। मिट्टी की घण्टी की टनकार और जतोले में धूल की पिसाई जिस दिन कुम्हार मिट्टी के दीयों को घर आकर देते हैं उसी दिन से शुरू हो जाती है लेकिन तराजू तो दीपावली के बाद बनती है। तराजू बनते ही दुकानदारी का खेल तब चलता रहता है जब तक कि ये मिट्टी के खिलौने टूट न जायें। अब गांव और शहर के उन घरों के बारे में सोचिये जहां सिर्फ बिजली के झालर जलाये जाते उन घरों के बच्चों में अगली सुबह को लेकर क्या किसी बात की खुशी रहती होगी ? एकाकी परिवार के चलते उनके लगभग न के बराबर चचेरे भाई - बहन और पास पड़ोस के न के बराबर दोस्त यार। मतलब न खेल का सामान और न खिलाड़ी साथी।बस पेंसिल रबर और टी वी का रिमोट इन्हीं के बीच इन बच्चों की अगली सुबह बीतती है।समय परिवर्तन के साथ हम अपने जीवन में जितनी कृत्रिमतायें शामिल करते जा रहे हैं जीवन की मौलिक खुशी से इतना ही दूर होते जा रहे है।यह समस्त कृत्रिम और आयातित व्यवस्था हमारे मौलिक जीवन पर सटीक नहीं बैठती है।हम बच्चों को हार्ड शिप से दूर करते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति की यात्रा गुरुकुल भिक्षाटन पद्धति से शुरू हुई थी जिसमें राजा का बच्चा भी भिक्षाटन करता था गुरुकुल में चटाई पर सोता था , राजा का बच्चा उसके पास इतना अनाज होते हुए भी भिक्षाटन इसलिए करता था कि उसका शुरुआती जीवन हार्ड शिप में गुजरे और उसे जमीनी सच्चाई का पता चले। वह जीवट वाला बने। आज की कहानी ए सी बस और ए सी क्लास रूम तथा ए सी घर पर आकर टिकी है। पिछली पीढ़ी जो कम से कम स्कूल जाने के नाम पर दो -चार किलोमीटर पैदल या दस- पांच किलोमीटर साइकिल चलाकर आयी है।40 से 50 की उम्र में रोगों की खान बन गई है। ज्यादातर लोगों की सुबह एलोपैथिक गोलियों से शुरू होती है। कल्पना कीजिए यह पीढ़ी जो घर के गेट से स्कूल के गेट तक ए सी बसों में सवार होकर जा रही है जब वह 40 से 50 वर्ष वाले उम्र के पड़ाव पर जब पहुंचेगी तब उसका शरीर कितने रोगों की खान होगी और उनके जीवन में कितनी उमंग शेष बचेगी। सारांश बस इतना है कि कृत्रिमता मौलिक खुशी और सार्थक जीवन कभी नहीं दे सकती। यह अपना मोल जीवन से किसी न किसी रूप में जरुर चुकता करवाती है यह बात और है कि हम अपने को झूठी दिलासा देते फिरते हैं।

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