हिंदी आलोचना में विशिष्ट भूमिका के लिए ख्यात रहेंगे मैनेजर पाण्डेय

 

बिहार के गोपालगंज की माटी में जन्मे , हिंदी साहित्य जगत के गम्भीर और विचारोत्तेजक आलोचनात्मक लेखन के लिए विख्यात लेखक मैनेजर पांडेय जी के निधन से हिंदी साहित्य जगत में शोक की लहर है। देश भर के तमाम लेखक, पत्रकार और विभिन्न संस्थानों से जुड़े लोगों ने गहरा शोक व्यक्त किया है।

जेएनयू के प्रोफेसर और लेखक डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल जी लिखते हैं " फूले फूले चुनि लियै, काल्हि हमारी बार...। " 
         मैनेजर पाण्डेय का जन्म बिहार के गोपालगंज जिले के लोहटी में 23 सितंबर, 1941 को हुआ था। मैनेजर जी की आरंभिक शिक्षा गांव में ही हुई । शुरुआती पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय का रुख किया और यहीं से एम. ए. की पढ़ाई पूरी की । इसके बाद अपनी पीएचडी के लिए उन्होंने सूरदास को चुना और यहीं से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।आगे मैनेजर पाण्डेय शिक्षा के ही क्षेत्र में आगे बढ़ गए। उन्होंने बरेली कॉलेज, बरेली और जोधपुर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के तौर पर शिक्षण कार्य किया । तत्पश्चात वे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा संस्थान के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफेसर रहे व भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष भी रहे ।
         मैनेजर जी का हिन्दी साहित्य के लिए योगदान अतुलनीय है। हिन्दी की आलोचना विधा में उन्होंने लगभग तीन दशक से भी अधिक लिखा । वर्तमान में जहां हिन्दी आलोचक अपनी आलोचना लिखते हुए ग्राम्य जन चेतना को गहराई देने में कई मूल बिंदुओं से इतर चले जाते हैं, वहीं मैनेजर जी गहराइयों को अपने लेखन में उकेरते थे । इसका कारण उनकी अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि तो थी ही किंतु जन संस्कृति मंच से जुड़ने के बाद उन्होंने अपने लेखन में इस गंभीरता को और धार दिया । जन संस्कृति मंच की स्थापना 1985 में हुई थी । गोरख पाण्डेय जी उत्तर प्रदेश के बस्ती के रहने वाले थे । गोरख पांडे इसके महासचिव और पंजाबी के मशहूर नाटककार गुरुशरण सिंह अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडे भी, गोरख पाण्डेय के साथ सम्मेलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए थे। इन्हीं गोरख पांडे के साथ ही मैनेजर जी ने भी आधुनिक हिंदी काव्य के अध्याय में नक्सलबाड़ी के योगदान को रेखांकित किया। 
         मैनेजर पाण्डेय जी अपने समय में धर्मनिरपेक्षता पर चली बहस में दारा शिकोह के किए गए कई कार्यों का जिक्र करके लोगों को मुखर करते रहे । उनके इन्हीं प्रयासों में ही मुगल बादशाहों की हिंदी कविता को सामने लाना प्रमाण था।
         आगे उन्होंने उपनिवेशीकरण पर अपना लंबा विचार साझा किया । महादेवी वर्मा जी की पुस्तक : शृंखला की कड़ियां " पर उन्होंने स्त्री विमर्श संबंधी चल रही बहसों पर तीखे लेख लिखे ।
         अपने पूरे जीवन वह अपने लेखन के साथ , अपने व्यवहारिक और वैचारिक रूप से सक्रियता के साथ हिन्दी के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया। इनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियों में "शब्द और कर्म , साहित्य और इतिहास-दृष्टि,
भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य ,साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका ,आलोचना की सामाजिकता,उपन्यास और लोकतंत्र,
हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान ,आलोचना में सहमति-असहमति,भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा ,
साहित्य और दलित दृष्टि, शब्द और साधना इत्यादि रहे ।
         प्रकाशित पुस्तकों में "मुक्ति की पुकार" ,
"सीवान की कविता" आदि रही । 

   - अन्तरिक्ष राय 
  ( स्वतंत्र लेखक , विभिन्न समसामयिक विषयों पर लेख) 

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