धर्म, जाति, सम्प्रदाय और क्षेत्रीयता बनाम भारतीय राजनीति

 इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जहां राजनीति का आधार शिक्षा, वैज्ञानिक सोच, बराबरी का व्यवहार और जन कल्याण होना चाहिए था, वहां स्वतंत्रता की तीन चौथाई सदी के बाद भी धार्मिकता, जातीयता, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रीयता का ही बोलबाला है। राजनीति के इन स्थायी हो चुके आधारों का विश्लेषण करना वर्तमान परिस्थितियों में जरूरी हो गया है।

धार्मिकता: भारतीय राजनीति में सबसे पहले अपना धर्म आता है जिसे मानता और उसके अनुसार चलता हर कोई है लेकिन दिखलाता यही है कि वह धर्म के आधार पर कतई कोई भेदभाव नहीं करता। इसे कथनी और करनी में अंतर कह सकते हैं। जब बात धर्म की रक्षा करने की आती है तो उसके लिए कैसी भी कुर्बानी देने या कहें कि शरारत करने की छूट मिल जाती है।
धर्म को अफीम की संज्ञा दी गई है। अर्थात धार्मिकता एक एेसी लत है जो अगर लग जाए तो इंसान उससे अधिक किसी चीज को नहीं मानता। यह जो आज जेलों में बहुत से कथित साधु-संत, महात्मा अपने दुराचार और बलात्कार तथा हत्या के आरोप में बंद हैं, उनके कट्टर अनुयायी यह मानते ही नहीं कि इन लंपटों का कोई दोष भी है। यह ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन्हें धर्म की अफीम चटा दी जाती है और वे उसके नशे से मुक्त नहीं हो पाते। हमारे सभी राजनीतिक दलों के लिए ये लोग बहुत काम के होते हैं और इनसे सांठ-गांठ किए रखना इन दलों के सुनहरे भविष्य की गारंटी है।
धार्मिक उन्माद को भड़काना बहुत आसान है, छोटी-सी ङ्क्षचगारी प्रदेश से लेकर देश तक को दंगों की आग में झुलसा सकती है, क्योंकि धर्म है ही ऐसी चीज जो अगर चाहे तो एकता की डोरी को अटूट बंधन में बदल दे और अगर न चाहे तो उसका असर भारत विभाजन की त्रासदी जैसा भी हो सकता है।
जातीयता: राजनीति का दूसरा मजबूत स्तंभ जातियों के बीच समन्वय बनाए रखकर जनता को उनकी जाति के आधार पर बांटकर रखने की कला का नाम ही जातीयता है। जात-पात के आधार पर चुनाव लडऩा और जीतने के लिए अपनी जाति को आधार बनाना आजादी के बाद हुए पहले चुनाव से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है।
आपने अक्सर देखा होगा कि जब चुनाव नजदीक आते हैं और उ मीदवार बनाने की शुरूआत होती है तो जातियों का समीकरण बिठाया जाने लगता है। जातियों जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की संख्या के आधार पर प्रत्याशी घोषित किए जाते हैं। ऐसे नेताओं का दलबदल भी कराया जाता है जिनका उस क्षेत्र में अपनी जाति का वोट बैंक हो। कुछ दल तो जातीयता को ही मुद्दा बनाकर सत्ता पर काबिज हो पाए हैं।
ये जातियां भी कमाल की चीज हैं, इनके आगे किसी अन्य योग्यता की जरूरत नहीं रह जाती। अनपढ़, गंवार से लेकर आपराधिक गतिविधियों में शामिल लोग भी जाति पर अपनी मजबूत पकड़ होने से बार-बार चुने जाते हैं। विधानसभा से लेकर लोकसभा तक में हत्या, बलात्कार, हिंसा भड़काने के आरोपी केवल जातीयता के बल पर ही देश के संविधान रक्षकों और कानून बनाने वालों की जमात में शामिल हो जाते हैं जबकि उनकी जगह जेल में होनी चाहिए।
साम्प्रदायिकता: राजनीति का तीसरा स्तंभ संप्रदायों के बीच नफरत फैला कर अपना उल्लू सीधा करना है। हमारे देश में जनता के बीच उनके संप्रदाय के आधार पर विभाजक रेखा बनाए रखकर राजनीति करने का चलन आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था जो कम होना तो दूर, अपनी जड़ें गहरी करता जा रहा है। देखा जाए तो जातीयता और सा प्रदायिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अंतर केवल इतना है कि जाति का दायरा सीमित है और संप्रदाय का बहुत विशाल। राजनेताओं के लिए संप्रदाय के आधार पर सफलता की सीढिय़ां चढ़ते जाना उनका मूलमंत्र है।
क्षेत्रीयता: क्षेत्रीयता का अर्थ अपने इलाके की बागडोर एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में होना है जिसके इशारा करते ही पूरा माहौल बदल जाए अर्थात कल तक जो आसमान की बुलंदी पर थे, वे धड़ाम से नीचे गिरे दिखाई दें और जिसे कोई जानता तक न हो, उसके हाथों में शासन की लगाम आ जाए। क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप राष्ट्रीय दलों के बड़े-बड़े नेताओं से अधिक शक्तिशाली होते हैं। क्षेत्रीयता के दायरे में अधिकतर वे राजनीतिक दल आते हैं जिनका आधार पारिवारिक होता है। इनका प्रभाव छोटे राज्यों में अधिक होता है और वहां सत्ता का परिवर्तन आम तौर पर दो दलों के बीच होता रहता है। इनका प्रभाव इतना अधिक होता है कि अपने को राष्ट्रीय दल कहने का दंभ भरने वाले इनके आगे पानी भरते दिखाई देते हैं। ये दल जोड़-तोड़ करने में माहिर होते हैं।
क्षेत्रीय दल अपनी सुविधा के हिसाब से किसी से भी गठबंधन कर लेते हैं, उनके लिए सिद्धांत या नीति और यहां तक कि अपनी गरिमा बनाए रखना कोई ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता बशर्ते कि सत्ता सुख में कोई कमी न हो। इस तरह राजनीति के ये चार स्तंभ हमारे देश के राजनीतिक दलों तथा उनके कर्णधारों के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। इन्हें देश की गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई से कोई मतलब नहीं होता। इन चारों स्तंभों की मजबूती का एकमात्र कारण राजनीतिक दलों द्वारा देश में शिक्षा का प्रसार न होने देना है।
कितनी बड़ी कीमत: आज जो देश में आपाधापी, अविश्वास, गलाकाट प्रतियोगिता, किसी भी कीमत पर सत्ता पर कब्जा जमाए रखना और कानून व्यवस्था के स्थान पर जिसकी लाठी उसकी भैंस का वातावरण है, उसका कारण धर्म, जाति, संप्रदाय और क्षेत्रीयता को राजनीतिक दलों द्वारा अपना नीतिगत सिद्धांत बना लेना है। इसमें परिवर्तन होना आवश्यक है, वर्ना डर है कि देश को फिर से कहीं आजादी के पहले वाले हालात में हमारे वर्तमान नेता न पहुंचा दें।
डॉ राहुल सिंह
निदेशक राज स्कूल आफ मैनेजमेंट साइंसेज वाराणसी

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