बस अपने ओहदे से.....


सच कहता हूँ मित्रों....

बचपन में तो हम सबके...
रंग-बिरंगे.... मिट्टी वाले...
अपने-अपने... बनते रोज घरौंदे थे....
मन अपना घुल-मिल जाता था,
जब मिलते हरियाली वाले पौधे थे...
हर शाम हमारी न्यारी थी,
चौक पे जब होते हम इकट्ठे थे....
मगन सभी हो जाते थे... जब मिलते..
गुल्ली-डण्डे, गेंद-खिलौने थे...
खुश हो जाते थे हम सब...!
जब छुप-छुप के खाते,
बागों के खट्टे-मीठे करौंदे थे...
सचमुच.... अपना तो...!
बचपन बीता था चौड़े से...
क्या कहूँ अब तो मित्रों...
बदल गया है सब कुछ इतना
कि... परेशान है दुनिया सारी....!
आपस के ही तिलस्मी सौदे से...
नजर आ रहे हैं सब कोई,
खुद अपनों द्वारा ही रौंदे से....
कोई काटता डाँड़-मेड़ यहाँ,
तो कोई कर रहा है कब्जा,
नादी-चरनी-खूँटा-हौदे से...
और तो और.... देखो मित्रों....!
विश्वासों की डोर टूट रही है,
आपस में हुए मसौदे से....
एक अचम्भा और जो देखूँ
इस जग में.... बड़े इतमिनान से....
निर्बल का हक चाट रहा है,
हर कोई.... बस अपने ओहदे से....!
निर्बल का हक चाट रहा है,
हर कोई.... बस अपने ओहदे से....!

रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज

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