आ रही चली मंथर गति से मेधाली क्षितिज से धुवांधार

डतरा पावस आयी बहार
चल पड़ा मिलन. सा मधुर पवन
सब सिहर उठे गिरि. वन उपवन
चीर दग्ध तरल निःश्वास छोड़
 थहरे पुलकित होकर कन-कन
 आ रही चली मंथर गति से मेधाली क्षितिज से धुवांधार
 चल पड़े बल्लरी के हिंडोले
तरूओं के शुष्कावरण खोल
वह मुग्ध- मुदित है झाॅक रहा
विस्मित-सा  नव जीवन अमोल
धरणी के श्यामल अंचल पर बरसा बादल का सजल प्यार
प्हिने उर्मिल धानी सारी
जृम्भित है अलख प्रकृति सारी
सुमनों की चीर-सोई क्यारी
धुॅधली अतीत स्मृति-सी छाई नभ-उर में मेघों की फुहार
गिरि-पाश्र्व- विलग क्रन्दन करतीं
उच्छ्वासों से अम्बर भरती
छू कर मानस के श्रान्त कूल
डर-दाह आज शीतल करती ।
वह चली तरंगिणि की धारा अज्ञात-लक्ष्य अपलय निहार
जग उठा शिखी का व्यथा-ध्वान्त
कंप उठा ध्वनित होकर वनान्त
बह चले वेदना-विकल स्रोत
जीवन का यह अभिनव दुखांत
मन-प्राण ह्दय में छायी है चालक की यह विरही पुकार
परम पूज्य गुरुवर स्व 0 श्रीपाल जी क्षेम की पुस्तक क्षेम रचनावली की भाग 6 की यह रचना है

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