गोरखपुर के तरकुलहा देवी मंदिर में मिलता है मटन-बाटी का प्रसाद

 माता के आशीर्वाद से 6 बार टूट गया था बाबू बन्धु सिंह के गले से फंसी का फंदा 
प्रतिदिन एक अंग्रेज का सिर काटकर देवी माँ को चढाते थे बन्धु सिंह 
तरकुलहा देवी  का मंदिर

पूर्वांचल में देवी मां का एक ऐसा मंदिर है जो धार्मिक आस्था का केंद्र होने के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास को भी बयां करता है। इस मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं को न केवल देवी का आशीर्वाद प्राप्त होता है बल्कि वे मंदिर के पास के इलाके में पिकनिक का भी आनंद उठाते हैं। जी हां, हम बात कह रहे हैं गोरखपुर से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तरकुलहा देवी मंदिर की। 
 जनमान्यता है कि यहां आने वाले भक्त कभी देवी के दरबार से निराश नहीं जाते हैं। इस मंदिर से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का दिलचस्प इतिहास भी जुड़ा है। यहां भक्तों को प्रसाद के रूप में मटन-बाटी मिलता है। इतिहास और आस्था के केंद्र बिन्दू बने इस मंदिर की कहानी बहुत अनोखी है।

यह बात 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से पहले की है। इस इलाके में जंगल हुआ करता था। यहां से से गुर्रा नदी होकर गुजरती थी। इस जंगल में डुमरी रियासत के बंधू सिंह रहा करते थे। नदी के तट पर तरकुल (ताड़) के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर वह देवी की उपासना किया करते थे। 
 उन दिनों हर भारतीय का खून अंग्रेजों के जुल्म की कहानियाँ सुन सुनकर खौल उठता था। अंग्रेजों के जुल्मो सितम की दास्तां बंधू सिंह तक भी पहुंची। उसके बाद से जब भी कोई अंग्रेज़ उस जंगल से गुजरा, बंधू सिंह ने उसका सर काटकर देवी मां के चरणों में समर्पित कर दिया करते थे।
पहले तो अंग्रेज यही समझते रहे कि उनके सिपाही जंगल में जाकर लापता हो जा रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें भी पता लग गया कि अंग्रेज सिपाही बंधू सिंह के शिकार हो रहे हैं। अंग्रेजों ने उनकी तलाश में जंगल का कोना-कोना छान मारा लेकिन बंधू सिंह उनके हाथ न आये। इलाके के एक व्यवसायी की मुखबिरी के चलते बंधू सिंह अंग्रेजों के हत्थे चढ़ गए। 



अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया जहां उन्हें फांसी की सजा सुना दी गयी। बंधू सिंह को फांसी के लिए गोरखपुर शहर के अलीनगर ले जाया गया। बताया जाता है कि अंग्रेजों ने उन्हें 6 बार फांसी पर चढ़ाने की कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं हुए। इसके बाद बंधू सिंह ने स्वयं देवी माँ का ध्यान करते हुए मन्नत मांगी कि माँ उन्हें जाने दें। 
कहते हैं कि बंधू सींह की प्रार्थना सुन ली और सातवीं बार में अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाने में सफल हो गए। कहते हिन् कि उधर बंधू सिंह फांसी पर लटके और इधर जंगल में तरकुल का पेड़ बीच से टूट गया और उससे ख़ून की धारा निकलने लगी।
तरकुलहा देवी के मंदिर में पूजा पाठ करने वाले जन्मेजय चतुर्वेदी बताते हैं कि समय के साथ यहां इलाके के लोगों ने मंदिर का निर्माण करा दिया। बंधू सिंह ने जो बलि की परम्परा शुरू की थी उसी का अनुसरण करते हुए अब यहां बकरे की बाली चढ़ाई जाती है। कुछ भक्त मन्नत पूरा हो जाने पर यहाँ घंटियां बाँध जाते हैं। यहाँ हर सोमवार और शुक्रवार को मेले जैसा दृश्य रहता है। 
मंदिर के पास ही वर्ष में एक बार मेला लगता है, इस मेला के आयोजाना समिति के सदस्यों में से एक ओम प्रकाश यादव बताते हैं कि बलि चढ़ाने के बाद लोग बकरे का मांस पका कर प्रसाद की रूप में ग्रहण करते थे। जिसे मिटटी की हांडी और गोबर के उपले पर पकाया जाता था। मिटटी की हांडी में पकने के कारण स्वाद और बढ़ जाता है। 
इसलिए अब मंदिर में दर्शन करने आने वाले लोग यहां बाटी और मीट का प्रसाद जरुर ग्रहण करते हैं। गोरखपुर-देवरिया हाईवे से मंदिर की तरफ मुड़ने पर दूर से धुंआ उठता दिखाई देता है, जो इस बात का परिचायक है कि लोग मिट्टी की हांडी में प्रसाद तैयार कर रहे हैं।

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