....... बस आंखों ही आंखों में एक से दूजे तक पहुंच जाए

प्यार के इसी कोमल स्वरूप को सहेजे जाने की जरूरत है। जहां शब्द अनावश्यक हो जाए और अभिव्यक्ति बस आंखों ही आंखों में एक से दूजे तक पहुंच जाए। एहसास की एक ऐसी भीगी बयार, जो एक-दूजे के पास ना रहने पर भी दोनों को आत्मा का गहरा संदेश दे जाए। जी हां, बस.. प्यार इसी को तो कहते हैं।
प्यार को छलने वाला समाज तो अत्याचार करने को तैयार बैठा ही है। कभी किसी सेना(?) के रूप में। कभी किसी धर्म-संस्कृति (?)के ठेकेदार के रूप में। लेकिन इससे पहले कि वे अपना कुत्सित रूप समाज के सामने प्रदर्शित करें स्वयं प्रेमियों ने अपने लिए समस्या खड़ी कर ली है। वे एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां उन्हें स्वयं नहीं पता कि जो उन्हें हुआ है वह प्यार है भी या नहीं? प्यार की शुद्धता और सहजता से अनजान आज के प्रेमी इस सवाल से जूझ रहे हैं कि कोई तो आए और उन्हें यह बताए कि 'हां, यही प्यार है।' आज प्यार की सरलता कायम नहीं रही। उसकी गहराई में अंतर आया है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों टूटकर बिखरता वह किरचों-किरचों में? तो क्या जो टूटता है वह प्यार होता ही नहीं है? मनोविज्ञान कहता है प्यार तो मन में एक बार बसी छवि की ऐसी अनुभूति है जो शाश्वत होती है। समय के चिह्न भी फिर जिस पर दिखाई नहीं देते हैं। यहां तक कि दैहिक परिवर्तन भी नहीं। प्यार यदि सचमुच प्यार ही है तो समय बीतने के साथ उसका रंग गहराता ही है, धूमिल नहीं होता। लंबे समय तक साथ रहने के बाद एक-दूसरे को देखा नहीं जाता बल्कि अनुभूत किया जाता है, ह्रदय की अनंत गहराइयों में। जो लोग अपनी सच्ची अंतरंगता के साथ एक-दूसरे के साथ रहते हैं, वे एक-दूसरे में अंशत: समाहित हो जाते हैं। कुछ इस तरह कि 60 वर्ष पहले प्रेम-विवाह करने वाले एक प्रेमी कहते हैं - 'मैं वही सोचता हूं जो 'वह' कहती है या जो मैं सोचता हूं वही 'वह' कहती है। बड़ी मीठी उलझन है। कई बार तो ऐसा लगता है मानो मैंने अपने ही शब्द उसके मुंह में डाल दिए हैं।' ND और 'प्रेमिका' कहती है - 'हम हर काम का श्रेय एक-दूजे को देते हैं। हम एक-दूजे की छवि को बनाए रखने के लिए दीवानों की तरह काम करते हैं। जैसे 'इनके' नाम से मैं दूसरों को उपहार भेजती हूं और मेरी तरफ से 'ये' दूसरों से क्षमा मांग लिया करते हैं। ' यानी एक के शुरू किए गए वाक्य को जब दूसरा पूरा करता है। दूर-दूर बैठकर भी दृष्टि ऐसी होती है जिसका अर्थ स्पष्ट करने की जरूरत नहीं होती। या किसी भी मनोरंजन के विषय में उनके मनोभावों को व्याख्या की आवश्यकता नहीं पड़ती। तब यही प्यार का वह वटवृक्ष होता है जिसकी छांव तले प्यार के नन्हे पौधे जीवन-रस पाते हैं। परिवार में प्यार के बने रहने की सबसे बड़ी वजह मुखिया दंपति के रिश्तों की प्रगाढ़ता होती है।
कौन थे संत वेलेंटाइन?
 रोम में तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था। उसके अनुसार विवाह करने से पुरूषों की शक्ति और बुद्धि कम होती है। उसने आज्ञा जारी की कि उसका कोई सैनिक या अधिकारी विवाह नहीं करेगा। संत वेलेंटाइन ने इस क्रूर आदेश का विरोध किया। उन्हीं के आह्वान पर अनेक सैनिकों और अधिकारियों ने विवाह किए। आखिर क्लॉडियस ने 14 फरवरी सन् 269 को संत वेलेंटाइन को फाँसी पर चढ़वा दिया। तब से उनकी स्मृति में प्रेम दिवस मनाया जाता है।

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