इंसानों! मौत को न बनाइए तमाशा...?

    प्रभुनाथ शुक्ला
मानवीय संवेदनाओं के सवाल पर आज का इंसान हासिए पर खड़ा है। मिसाइल युग के इंसान का तमाशाई व्यवहार हमें हैवान बना रहा है। इंसान के अंदर का इंसान और समाजवाद खत्म हो रहा है। उसके सरोकार सिमट रहे हैं। भीड़ के बीच में आज की इंसानी जिंदगी तमाशा बन गयी है। मंगलवार 23 सितम्बर को दिल्ली के चिडि़या घर में एक दिल दहलाने वाली घटना ने मानवीय सुरक्षा और संस्थागत दायित्वों के प्रति बड़ा सवाल खड़ा किया है। चूंकि घटना देश की राजधानी से संबंधित थी लिहाजा इसे इलेक्टानिक और प्रिंट मीडिया में पर्याप्त स्थान मिला। लेकिन इसी दिन उत्तराखंड के पौड़ी जिले में जंगली तेंदुए महिला पर हमला बोल उसकी जान ले ली, लेकिन यह खबर सूर्खियां नहीं बन पायी। क्योंकि यह घटना देश की राजधानी से ताल्लुक नहीं रखती थी। यह कितना अजब संयोग है जिस दिन भारत मंगल मिशन की सफलता पर अंतरिक्ष विजय का अनंत आकाश में झंडा फहरा रहा था, उसी दिन दिल्ली के चिडि़या घर में अव्यवस्था के बाघ ने 20 वर्षीय युवक की जान ले ली। इस घटना में किसका दोष है ? उस बाघ का या व्यवस्था की संवेदनशीलता का। फिर बाघ बनी व्यवस्था का ? दिल्ली के जिस चिडि़या घर में यह हादसा हुआ वहां तीन बाघ रहते है। जिसमें छह साल एक सफेद बाघ विजय भी शामिल है। विजय का जन्म इसी चिडि़या घर में हुआ था। वह इंसानी जमात से हर रोज परिचित होता था। इसलिए वह आदमखोर नहीं हो सकता था। उसमें हिंसक प्राकृतिक जन्यता गुण का भी अभाव था। क्योंकि शुरुवात से ही उस पर जंगल और उसकी सभ्यता की परछंायी नहीं पड़ी थी। लेकिन इंसानी आचरण ने उसे क्रूर और हिंसा पर वापस लौटने के लिए बाध्य कर दिया। बाड़े में गिरे युवक को बचाने के लिए चिडि़या घर प्रशासन के पास पूरे 15 मिनट का वक्त था। बाघ युवक पर कोई हिंसक वारदात नहीं करता है। वह खेलने के मिजाज में युवक पर हल्कें-फूल्के दो-चार पंजे मारता है। उसे चाटता है। बाद में बाड़े की ओर कदम रखता है। लेकिन इसी बीच चिडि़या घर में आयी भीड़ से एक पत्थर का टूकड़ा बाघ को चुनौती दे डालता है। उसे लगता है कि यह हमला युवक की ओर से किया गया है। प्रतिक्रिया स्वरुप वहीं हुआ जिसकी वहां मौजूद लोगों ने कल्पना की होगी। आखिरकार शिकार और आदमखोर दुनिया से दूर रहने वाले बाघ का परिचय हमी इंसानों ने करा दिया। अगर पत्थर मार कर उसके प्रकृति जन्य गुणों को चुनौति न दी गयी होती, शायद वह उस युवक पर हमला न करता और इंसानी कत्ल का बदनुमा दाग अपने दामन पर लगाता। इस घटना के लिए पूरी तरह चिडि़या घर प्रशासन जिम्मेदार है। जीवन और के सवाल पर उसे बचाने के लिए पर्याप्त वक्त था। वहां बाघ के लिए दूसरा शिकार डालकर या उसका घ्यान बटाकर घटना को रोकने के लिए जरुरी उपाय किए जा सकते थे। तमाशबीन भीड़ हटा दिया जाता। बाड़ में जाल या बेहोश करने वाली गन का इस्तेमाल किया जाता। इस तरह के जीघ्रण केमिकल होने चाहिए थे जिसे सूंघते बाघ बेहोश हो जाता। लेकिन इस तरह की व्यवस्था उपलब्ध नहीं करायी जा सकी। घटना के बाद भी कोई सर्कुलर नहीं जारी किया गया। चडि़या घर प्रशासन ने क्या कभी यह नहीं सोचा था कि इस तरह की घटना भी घट सकती है। सबसे बड़ा सवाल है कि जिस समय यह घटना हुई वहां मौजूद गार्ड क्या कर रहे थे। जिस दौरान युवक बाड़ फांद रहा था सुरक्षा व्यवस्था से जुड़े दूसरे लोग कहां थे। बाघ को पत्थर मारने वाली भी़ड़ क्यों मौन थी ? युवक को किसी ने क्यों नहीं रोका ? इन सावालों से यह साफ हो गया है कि उस बाघ को वहां मौजूद इंसानों से हिंसक का रास्ता अख्तियार करने के लिए बाध्य कर दिया। अगर उस पर पत्थर न मारा जाता तो वह युवक की जान बख्श देता। हमें इस घटना से इंसानी व्यवहार में फर्क लाने की जरुरत हैं। जानवरों की वकालत करने वाले स्वंसेवी संगठन घटना पर मौन क्यों हैं। क्या इंसान की जिंदगी जानवरों से भी कम हो गयी है। केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी का पालतू जानवरों से लगाव दुनिया में जाहिर है। लेकिन दिल्ली में घटी इस घटना के बाद भी उन्होंने चिडि़या घर का रुख नहीं किया और न ही मानवीय सुरक्षा को लेकर उनका कोई बयान आया। हमारे विकास में मानव जीवन एक पूंजी हैं। लेकिन हम इसकी सुरक्षा और संरक्षा को लेकर सतर्क नहीं दिखते हैं। हिंसक जानवरों, प्राकृतिक हादसों, सड़क और अग्नि कांडों, रेल हादसों में मानव जीवन का क्षरण हो रहा है। हमारे विकास में मानव जीवन और उसका श्रम सबसे महत्वपूर्ण। घटनाओं पर हमारी चुप्पी सवाल खड़े करती है। 
लेखकः स्वतंत्र पत्रकार हैं

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