किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश

  प्रभुनाथ शुक्ल
भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के मसले पर भाजपा सरकार मुश्किल में पड़ सकती है। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे का दिल्ली कूंच सत्ता का हिला सकता है। किसानों के व्यापकहित और आंदोलन के तीखेपन की नजाकत सरकार को भांप लेनी चाहिए और उसे अपना फैसला बदलना चाहिए। गंाधीवादी विचारक अन्ना हजारे को हल्के में लेकना सरकार को मुश्किल में डाल सकता है। क्योंकि यह आंदोलन सीधे किसानों से जुड़ा है। वैसे भी किसानों को लेकर देश की सरकारों का नजरिया बेहतर नहीं रहा है। किसानों के भाग्य में आत्महत्या की खिला है। मीडिया में आयी खबरों पर विश्वास करें तो मोदी सरकार बिल पर संशोधन के लिए सरकार तैयार हो गयी है। आंदोलनकारियों की यह सबसे बड़ी जीत है। सरकार खुद पर किसान विरोधी मुंहर नहीं लगवाना चाहती है। अभी वह दिल्ली पराजय के बाद विरोधियों की आलोचना का तीखा प्रहार झेल रही है। दूसरी बड़ी गलती कर वह सरकार और सामाजिक कार्यकर्ता हजारे से विरोध नहीं लेना चाहती। क्योंकि उसे अपनी नीतियों को संचालित करने के लिए पांच साल का वक्त है। आने वाले वक्त में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में आम चुनाव हैं। उत्तर भारत यह दोनों राज्य राजनैतिक लिहाज से सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों के लिए अहम हैं। यहां किसानों की जड़े काफी नीचे हैं। दूसरी तरफ जिस स्थान से हजारे ने आंदोलन का आगाज किया है। वहां भाजपा की सरकार है। इस स्थिति में प्रधानमंत्री बेमतलब का फसाद क्यों मोल लेना चाहेंगे। सरकार ने इस मसले पर यू-टर्न लेकर गेंद अपने हाथ में रखा है। अगर वह ऐसा करती है तो यह उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक कुशलता होगी। प्रधानमंत्री और भाजपा को यह अच्छी तरह मालूम था कि अगर सरकार इस पर अडि़यल रुख अपनाती है उसकी फजीहत हो सकती है। हासिए पर जाती कांग्रेस को पुर्नजीवन मिल सकता है। उसे मालूम है कि अगर कांग्रेस की तरफ लोकपाल बिल जैसा नजरिया अपनाया गया तो उसकी छबि देश की जनता और किसानों में एक क्रूर शासक की बनेगी। 2011 में हजारे और बाबा रामदेव के खिलाफ दमनात्मक नीति अपना कर ही पूरे देश से कांग्रेस का बोरिया विस्तर बंध गया और दिल्ली की सत्ता केजरीवाल जैसे नेता के हाथ चली गयी। कांग्रेस की वह सबसे बड़ी भूल थी। उसी आंदोलन के जरिए भाजपा केंद्र की सत्ता तक पहुंची है। उस स्थिति में वह किसान आंदोलन को कभी कुचलना नहीं चाहेगी। लिहाजा बेहद चालकी से बिल के संशोधन पर तैयार हो गयी है। सरकार के इस फैसले से आंदोलन की धार अपने आप कमजोर पड़ जाएगी। हलांकि नैतिक तौर पर यह हजारे और किसानों की जीत मानी जाएगी। लेकिन उस पर नरम नजरिया अख्तियार करना मोदी बड़ी कूटनीतिक जीत होगी अगर ऐसा हुआ। कांग्रेस इस आग को और अधिक भड़काना चाहेगी। उसे मालूम है कि किसान जितना आंदोलित होगा भूमि अधिग्रहण बिल पर किसानों की निगाह में उसका विश्वास उतना मजबूत होगा। क्योंकि राहुल गांधी ने भी आंदोलन करने का फैसला लिया है। इस संशोधन पर आरएसएस भी नाराज है। सरकार के लिए किसानों, हजारे और विराधियों की बीच इस बिल पर सामंजस्य बिठाने का यह सबसे बेहतर मौका है। लेकिन प्रधानमंत्री और सरकार इस पर अडियक नीति अपनाते हैं तो इस पर विराधियों का पलडा भारी हो सकता है। कांग्रेस की तरफ से लाए गए कानून पर भाजपा सरकार की तरफ से अध्यादेश लाना ही गलत था। क्योंकि यह विधेयक जहां किसानहितों का पूरक था। वहीं लोकसभा और राज्य सभा में सत्ता एंव प्रतिपक्ष के तर्क-विर्तकों के बाद पारित किया गया था। उस समय भाजपा प्रतिपक्ष में थी। दिल्ली पराजय को अन्ना भाजपा की किसान विरोधी नीति ही बता रहे थे। वैसे बिल पर भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने राजनीतिक निहितार्थ साध रही हैं। कांग्रेस अधिग्रहण कानून के जरिए किसानों की हमदर्दी नया दांव खेला था। उसे लगा था कि देश में हवा उसके खिलाफ चल रही है। इस स्थिति में यह काननू उसके लिए संजीवनी बन सकता है। लेकिन मोदी के सामने उसकी नहीं चली। लेकिन कांग्रेस का राजनीतिक निहितार्थ चाहे जो भी रहा लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार इसकी मूल आत्मा को नष्ट करने की जो साजिश रची। अब उसी में फंसती दिखती है। दर असल यह बिल पूरी तरह किसानों के हित में था। यह दीगर बात है कि उस समय कांग्रेस इसे अपने तत्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए बनाया था। लेकिन प्रधानमंत्री की मेक इन इंडिया पालसी में यह बड़ा अडंगा खड़ा था। विदेशी कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहित करना आसान काम नहीं था। इस कानून में सरकार के हाथ में कुछ बचा ही नहीं था। भू-स्वामियों और किसानों के पाले में सबकुछ था। लिहाजा पूंजीपतियों को फायदा और अपनी नीतियों के लिए किसानों का गला घोंटने की तैयारी की गयी। कांग्रेस सरकार की तरफ से पारित यह बिल 120 साल पुराने व्रितानी कानून का स्थान लिया। अंग्रेजों की तरफ से यह कानून 1894 में बनाया गया था। कांग्रेस की तरफ से लाए गए इस बिल में प्राविधान था कि किसानों की जमीन को बगैर उनकी सहमति के अधिग्रहित नहीं किया जा सकता था। सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजना के लिए 70 जबकि निजी कंपनियों के लिए 80 से 100 फीसदी सहमति अधिग्रहण के लिए कानूनी तौर पर जरुरी थी। अगर राष्टीय सुरक्षा या राष्टहित में किसानों की जमीन अधिग्रहण की जाएगी तो उचित मुआवजा मिलेगा। हलांकि राज्यों को भी भूमि नीति पर अगल से कानून बनाने का अधिकार दिया गया था। लेकिन वह किसी भी स्थिति में केंद्रीय कानून का अनुशरण ही करता। मुआवजे और पुर्नवास की मदद केंद्रीय कानून के बराबर रखनी पड़ती। बिल में 158 संशोधन किए गए। 28 बड़े बदलाव जबकिं 13 संशोधन स्थायी समिति और उतने ही शरद पवार की समिति ने किया था। दो बदलावा प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की पहल पर हुआ था। बिल में जमीन का उचित मुआवजा के साथ पुर्नवास की भी सुविधा है। शहरी इलाकों में बाजार भाव से दो गुना और ग्रामीण इलाकों में खेती की जमीन अधिग्रहित करने पर चार गुना रेट देना पड़ता। अगर निजी कंपनियों की तरफ से जमीन अधिग्रहित की जाती तो किसानों यानी भू-स्वामियों की 80 फीसदी सहमति आवश्यक थी। लेकिन जमीनों का अधिग्रहण 1894 अधिग्रहण अधिनियम के तरह ही किया जा सकता है। एक से अधिक फसलिय चक्र वाली जमीन नहीं अधिग्रहित की जा सकती थी। अधिग्रहण के चलते अपनी आजिविका खोने वाले किसानों के लिए ग्रामीण इलाकों में 12 माह तक 3.000 रुपये निर्वहन भत्ता देने का प्राविधान है। इसके अलावा ग्रामीण इलाकों में 150 वर्ग मीटर में बना बनाया मकान संग 50 हजार रुपये का आवासीय भत्ता भी देने का प्राविधान है। जबकि शहरी इलाके में 50 वर्गमीटर में तैयार मकान दिया जाएगा। इन सब के अलावा भूमि का मालिक संबंधित अधिग्रहितकर्ता कंपनी या संस्था नहीं बन सकती थी। इसे लीज पर दिया जाता। जिसका असली मालिक किसान ही रहता। जिस जमीन का अधिग्रहित किया गया है अगर उस पर पांच साल तक प्रोजेक्ट नहीं लगता है तो उस जमीन को किसानों को लौटाना पड़ता। लेकिन मोदी सरकार की तरफ से लाए गए अध्यादेश में कुछ को छोड़ बाकि कानून की मूल आत्मा को ही खत्म कर दिया गया था। किसानों की सहमति समाप्त कर सारा अधिकार सरकार के हाथ हो गया था। सरकारी अध्यादेश में यही सबसे बड़ी खामी है। देश मंे विकास के नाम पर काफी जमीनों का अधिग्रहण किया गया हैं। लेकिन कई परियोजनाएं अधूरी पड़ी है।। कहीं पर्यावरण के ना पर तो कहीं आदिवासियों की आड़ में अटकी पड़ी हैं। धरोहर जल, जंगल और जमीन की आड़ राज्यों में वोट बैंक की राजनीति की जा रही है। करोड़ों की परियोजनाएं लंबित पड़ी हैं। कितनी विदेशी कंपनियों ने विरोध के चलते अपने को डाबैक कर लिया है। देश के कई राज्यों में स्पेशल इकोनामिक जोन के नाम पर जमींने अधिग्रहित की गयी। लेकिन उनका उपयोग नहीं हो पाया है। संसद में पेश की गई कैग रिपोर्ट की माने तो देश में सेज के लिए 39,245 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित की गयी। लेकिन उसमें सिर्फ 5,402 हेक्टयर का ही उपयोग किया जा सका है। ओडिसा में 96.98, बेस्ट बंगाल 96.34 महाराष्ट में 70.05, कर्नाटक 56.72 जबकि तमिलनाडू में 49.02 फीसदी जमीन खाली पड़ी हैं। इसके अलावा आंध्र प्रदेश में 48.29 और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहराज्य गुजरात 47.45 प्रतिशत जमीन का उपयोग नहीं हो सका है। देश के छह राज्यों में यह जमींन सेज के लिए अधिग्रहित की गयी थी। सवाल उठता है जब किसानों की इन बहुमूल्य जमीनों का उपयोग नहीं किया जा रहा फिर अधिग्रहण का क्या मतलब है। औद्योगिक विकास के नाम पर इसी तरह अधिग्रहण किया जाता रहा तो खाद्यान्न उत्पादन में जहां गिरावट आएगी। वहीं किसानों की आत्महत्या की गति और बढ़ेगी। क्योंकि हमारा देश कृषि प्रधान है और यहां की 70 फीसदी आबादी की आजिविका खेती पर निर्भर है। इस लिए अन्ना की तरफ से हरियाणा के पलवल से शुरु किया गया किसान अधिकार चेतावनी सत्याग्रह आंदोलन एक नई दिशा तय करेगा। यात्रा में 17 राज्यों के 50 हजार से अधिक लोग दिल्ली कूच किया है। सरकार की नींद तोड़ने के लिए यह काफी है। 23 फरवरी को यह यात्रा दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंचेगी और 24 फरवरी को लोग हजारे की अगुवाई में बिल के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे। सरकार के सामने बड़ी चुनौती यह है कि कभी भाजपा के थिंक टैंक और आरएसएस के विचारक गोविंदाचार्य भी इस आंदोलन में हजारे के साथ खड़े हैं। आंदोलन को धार देने के लिए मेधा पाटकर, अरुणा राय, स्वामी अग्निवेश, मैग्सेस पुरस्कार विजेता एवं पर्यावरण विद राजेंद्र सिंह भी साथ हैं। सरकार अगर इस बिल पर अपने कदम वापस नहीं लेती हैं तो उसे भारी राजनीतिक छति उठानी पड़ सकती है। अब देखना होगा कि सरकार का अगला कदम क्या होगा। वैसे सरकार गो-बैक होने का फैसला कर लिया है।

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