असहिष्णु राजनीति और सेक्युलरिज्म...?

   प्रभुनाथ शुक्ल
राजनीति ने शब्दों की भाषा और परिभाषा पर नए मिथक गढ़े हैं। देश की राजनीति में शब्दों को लेकर तीखी और गंभीर बहस छिड़ी है। ‘सेक्युलर‘ और ‘असहिष्णुता‘ पर खास चिंता जतायी जा रही है। निश्चित तौर पर यह चिंतन और चिंता का सवाल है। दोनों शब्दों पर नीत नयी परिभाषाएं और जुमलेबंदी की जा रही है। देश की राजनीति में केंद्र बिंदु बने सेक्युलर और असहिष्णुता की शब्दावली को धर्म और पंथ निरपेक्षी और सापेक्षी अपनी-अपनी तरह से विवेचित कर रहे हैं। राजनीति के भाषा विवाद में दोनों शब्द अनटचेबल यानी अछूत हो चले है। सवाल उठता है कि जितनी संवेदनशीलता से दोनों शब्दों पर सड़क से संसद और विदेश की धरती पर बाबेला मचा है उन शब्दों से अधिक धर्म और पंथ निरपेक्ष ‘राजनीति‘ है ? राजनीति क्या स्वयं में पवित्र है। राजनीति और राजनेता क्या स्वंय में सेक्युलर और सहिष्णु हैं। अगर इस पर बहस की जाय तो निश्चित तौर पर उसका परिणाम नकारात्मक होगा। देश की राजनीति का धर्म ही पथपभ्रष्ट हो चला है। वह अव्यवहारिक हो चली है। उसकी मूल भावना भटक चुकी है। उसके विचार और सिद्धांत एकांगी हो चले हैं। उसका उद्देश्य सार्वभौमिक के बजाय सत्ता और सिंहासन की परिक्रमा करता दिखता है। देश को संविधान और उसकी व्यवस्था से नहीं राजनीति नीति और उसकी असहिष्णुता से खतरा है। वह असहिष्णु और अनसेक्युलर हो चली है। शब्दों की राजनीति से देश की व्यवस्था नहीं चल सकती है। हमें उसकी समस्याओं का समाधान चाहिए। आज संविधान संशोधन पर सवाल उठ रहे हैं। कहा जा रहा है कि अगर ऐसा हुआ तो रक्तपात हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गैर मुल्कों की धरती पर भी असहिष्णुता और सेक्युलरवाद पर सफाई देनी पड़ रही है। भारत को तालिबानी व्यवस्था का पोषक बताया जा रहा है। यह सब क्या है। जिस सेक्युलरवाद पर हमारे राजनेताओं को इतनी चिंता है। क्या उन्होंने हमारी संविधान और उसके विधान की मूल आत्मा पर गौर किया है। हमारे राजनीतिक दलों ने जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय, राज्य के आधार पर राजनीति कर उसकी मूल आत्मा को चोट पहुंचायी है। हम बदलाव को सहजता से क्यों नहीं स्वीकार कर रहे हैं। हम आरक्षण को अटल और अक्षुण्य रखना चाहते हैं लेकिन हमने क्या कभी इसकी भी समीक्षा की है कि इसका लाभ किसको और किस हद तक मिल रहा है इसके बारे में जानने की कोशिश ईमानदारी से की है। समाज का वह तबका जिसे वास्तव में आरक्षण की जरुरत थी क्या उसे उसका लाभ मिल रहा है। समाज की बराबरी में क्या वह आगे आ रहा है। जाति की राजनीति क्या संविधान की मूल भावना का आदर करती है क्या यह असहिष्णुता नहीं है। हमें बदलाव को सहजता से स्वीकार करना होगा। प्रधानमंत्री मोदी की यह टिप्पणी बिल्कुल सच है कि हमें देश को एक नयी तरक्की की ओर ले जाने के लिए संसद से सड़क तक आम सहमति बनानी होगी। हमें संख्याबल का गर्व त्यागना होगा। यह वक्त आम सहमति का है। व्यक्ति स्वयं में सेक्युलर नहीं है। हमें सेक्युलर के बजाय समाजवाद पर अधिक चिंतन की आवश्यकता है। इस पर बहस बेमतलब की है। देश की राजनीति और राजनीतिज्ञों को यह सोचना होगा कि हमने समाजवाद का कितना संरक्षण किया है। हमारी प्राथमिकता सेक्युलर और उसका वाद नहीं हमारी वरियता समाज और उसका वाद होना चाहिए। लेकिन राजनीति का दृष्णिकोण दिशाहींनता की ओर बढ़ता दिखता है। भाषायी शब्दावलियों और राजनीतिक संरक्षण से हमारा हित होने वाला नहीं है। डा. भीमराव अंबेडकर की 125 वीं जयंती पर संसद में ‘संविधान के प्रति प्रतिबद्धता‘ विषय पर जिस तरह माख मलाल देखने को मिला वह स्थिति हमारे लिए बेहद असहज है। हम संख्या बल के आधार पर संविधान की किताब में चाहे जो संशोधन कर लें लेकिन उससे कुछ होने वाला नहीं है। हमें उन चीजों को अपने आचरण में उतारना होगा और अपने को सेक्युलवाद के नाम पर असहिष्णु विचारों से अलग करना होगा। हमारे लिए शब्दावली उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितना देश और उसकी प्रगति। हम किसी निश्चित दायरे में परिक्रमा कर व्यवस्था को सुदृढ़ नहीं बना सकते। अगर हम ऐसा करते हैं तो यह देश और उसकी आत्मा के खिलाफ ढोंग और ढकोंसला है। सेक्युलर का शब्दिक अर्थ नास्तिकता से है। यह शब्द आयातित है। इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। लोगों इसकी सुविधा के अनुसार अपनी परिभाषा गढ ली। सेक्युलर लैटिन भाषा की ‘सेकुलो‘ शब्द से बना है। यह यूरोप र्धािर्मक और राजसत्ता के बीच से निकला विवाद है। यह शब्द ईसाईयत से अधिक करीब है। कैथोलिक देशों में सेक्युलर का शाब्दिक अर्थ स्टेट अगेंस्ट चर्च किया जाता है। भारत में इसका अर्थ संप्रदायिकता से भी जोड़ा जाता है। क्या कोई भी व्यक्ति नास्तिक हो सकता है। यह कभी संभव नहीं है। अगर कोई नास्तिक होता है तो यह खुद में असहिष्णुता होगी। धर्म हमें असहिष्णु नहीं बनाता है। कोई भी व्यक्ति अधार्मिक नहीं हो सकता है। अगर कोई ऐसा है तो वह पंथनिरपेक्षी है। राजसत्ता सेक्युलरवादी हो सकती हैं लेकिन उसका लोकसत्ता ऐसा हो संभव नहीं। क्योंकि हम ईश्वर, अल्लाह, गाड और परमेश्वर के अस्तित्व को नकार नहीं सकते हैं। हम ऐसा करते हैं तो हम असहिष्णु और सेक्युलरवादी हैं। संविधान स्वयं में धर्म है। धर्म वहीं है जो हम धारण करते हैं। वह हमारी आत्मा है। हमनें संविधान को अंगीकार किया है। अगर इससे बिलग होते हैं तो यह हमारा सेक्युलरवाद होगा। संविधान में 42 वें संशोधन के जरिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जरिए 1976 में सेक्लुर और सोसलिस्ट शब्द लाया गया। सवाल उठता है कि क्या इन शब्दों के शामिल करने से देश में सेक्लुलरवाद का उदय हुआ। क्या उसके पहले हमारी संस्कृति, हमारा धर्म, हमारी जाति, हमारी भाषा हमारे राज्य अनसेक्युलर थे...? हमने क्या संविधान की उद्देशिका का अवलोकन किया है। संविधान की मूल प्रस्तावना धार्मिक, जातिय, भाषायी, आर्थिक, सामाजिक आधार पर सेक्युलरवाद को प्रश्रय देती है। फिर इस शब्दावली पर बहस ही निरर्थक और दिशाहीन है। संविधान सभा में बहस के दौरान डा. अंबेडकर ने सेक्युलर, फेडरल और सोशलिस्ट जैसे शब्दों को डालने पर एतराज किया था। उनका कहना था कि इन शब्दों की आवश्यकता नहीं है। यह संविधान की मूल आत्मा में मौजूद हैं। सवाल उठता है कि जब भीमराव ने इन शब्दों को संविधान में जोड़ने से एतराज किया था फिर इमरजेंसी के दौरान ऐसी कौन सी समस्या आ गयी जिसे संशोधन के जरिए उसे समाहित किया गया। यह भी बहस हो रही है सेक्युलर शब्द का अर्थ पंथनिरपेक्षता होनी चाहिए या धर्मसापेक्षता। देश का संविधान ‘वी द पीपुल द्वारा फार द पीपुल‘ पर आधारित है। अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड सभी देशों में सेक्युलर यानी धार्मिक स्वतंत्रता का आजादी दी गयी है। सभी को धार्मिक आजादी का हक है। भारत भी पंथनिरपेक्ष नहीं है। यहां भी धर्मसापेक्षता है। सबसे को अपने-अपने धर्म, संस्कृति, सामाजिक रीति रिवाजों के साथ जीने और रहने की पूरी आजादी हैं हमारा संविधान में यह पूरा हक हमें देता है। फिर संसद में सेक्युलर पर यह असहिष्णुता समझ में नहीं आती है। यहां सवाल सेक्युलर का नहीं है। यहां बहस है अपने-अपने राजनीतिक अस्तित्व का। भाजपा पर हिंदूवादी व्यवस्था का पोषक होने का आरोप है। जबकि प्रतिपक्ष इसे सहन नहीं कर सकता है। क्योंकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने 42 वें संविधान संशोधन का मसला उठा कांगे्रेस पर सीधावार किया हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस अपने राजनीतिहित संरक्षण के लिए मुखर होगी। अगर वह ऐसा करती है तो प्रतिपक्ष की एका सामने आएगी और भाजपा को घेरने का एक और मौका सेक्युलर और असहिष्णुता के जरिए मिलेगा। इसके अलवा इस निरर्थक बहस देश और समाज का हित नहीं दिखता है। यह बहस केवल राजनीति का हितसंरक्षण करती दिखती है।
लेखकः स्वतंत्र पत्रकार हैं

Related

news 4347643031821875907

एक टिप्पणी भेजें

emo-but-icon

AD

जौनपुर का पहला ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल

आज की खबरे

साप्ताहिक

सुझाव

संचालक,राजेश श्रीवास्तव ,रिपोर्टर एनडी टीवी जौनपुर,9415255371

जौनपुर के ऐतिहासिक स्थल

item