उत्तराखंड में बनेगी क्या रावत की सरकार ?
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प्रभुनाथ शुक्ल
उत्तराखंड में केंद्रीय मंत्रीमंडल की सिफारिश पर लागू राष्टपति शासन का भविष्य क्या हो यह कल तय हो जाएगा। क्योंकि सर्वोच्च अदालत के आदेश पर राज्य की विधानसभा में पूर्वमुख्यमंत्री हरीश रावत 10 मई को अपना विश्वासमत हासिल करेंगे। रावत पूरी तरह आश्वसत हैं कि उत्तराखंड में दोबारा उनकी सरकार बनेगी। क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष ने जिन कांग्रेस के नौ बागी विधायकों को अयोग्य ठहराया था राज्य के उच्च न्यायालय ने भी उस पर मुहर लगा दी है। लेकिन अब यह मामला सुप्रीमकोर्ट में विचाराधीन है। सर्वोच्च अदालत आज शाम को इस पर शाम को फैसला करेगी। अगर सुप्रीमकोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले को सही ठहराया तो रावत को काफी हद तक राहत मिल सकती है। उत्तराखंड में उनकी सरकार बन सकती है। लेकिन अगर अदालत का फैसला विपरीत गया और अयोग्य बागी विधायकों को मतदान का अधिकार मिल गया तो उस स्थिति में हरीश रावत को राज्य विधानसभा में बहुमत साबित करना आसान नहीं होगा। भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों की निगाहें सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर टिकी हैं। राज्य में विश्वासमत के दौरान दो घंटे के लिए राष्टपति शासन हटा दिया जाएगा। रावत सरकार के अल्पमत में आने के बाद राज्यपाल की तरफ से 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने का समय दिया था लेकिन केंद्रीय मंत्रीमंडल ने जल्दबाजी में राज्य को राष्टपति शासन के हवाले कर दिया। इसके पीछे क्या कारण थे इसकी भी तस्वीर कुछ खास नहीं साफ नहीं हुई। सिर्फ विनियोग विधेयक का बहाना लिया गया। भाजपा ने उत्तराखंड के राजनीतिक हालात पर जरुरत से अधिक दिलचस्पी दिखायी। यह दीगर बात है कि कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की ओर से सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद रावत सरकार अल्पमत में आ गयी थी। लेकिन उसे अपना बहुमत साबित करने का मौका था। सरकार अपना बहुमत न सिद्ध कर पाती उस स्थिति में केंद्रीय मंत्रीमंडल राज्य में राष्टपति शासन की सिफारिश कर सकता था। लेकिन बहुत के पहले सरकार को बर्खास्त किया जाना कहां कि संवैधानिकता रही। यह लोकतांत्रित मर्यादाओं का खुला उल्लंघन है। यह कांग्रेस का आंतरिक संकट था। कांग्रेस इस संकट से चाहे जिस तरह से निपटती यह उसकी जिम्मेदारी थी लेकिन केंद्रीय मंत्रीमंडल और राज्य में प्रतिपक्षी भाजपा ने जिस तरह बागी विधायकों को संरक्षण दिया उससे साफ जाहिर होता है कि उत्तराखंड सरकार को अपदस्त करने में भाजपा और बागियों की अहम भूमिका है। दूसरी बात वक्त से पहले दिल्ली सरकार ने राष्टपति शासन की सिफारिश कर यह साबित कर दिया इस सियासी खेल में वह भी शामिल है। अरुणांचल के बाद बाद उत्तराखंड में जो कुछ देखने को मिला उससे यह साफ जाहिर होता है कि आंकड़ों की आड़ में सिर्फ बस सिर्फ सियासत का खेल खेला गया। अंकों की बाजीगरी लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। दिल्ली सरकार का तर्क रहा कि बहुमत साबित करने के लिए अलोकतांत्रित तरीके अपनाए जा रहे थे। विधायकों की डील का एक कथित स्टींग वीडिओ आने के बाद यह खुलासा हुआ कि विधायकों को प्रलोभन दिया जा रहा है। हलांकि रावत ने इसे पूरी तरह फर्जी बताया था। लेकिन दिल्ली सरकार को एक बहाना मिल गया। कांग्रेस के घरेलू झगड़े का सीधा लाभ उठाने में भाजपा कामयाब रही है। विजय बहगुणा और बागियों को आगे कर उसने जो राजनीतिक चाल चली और कामयाब रही। राज्य में पार्टी को बिखरने से बचाने में सोनिया और राहुल गांधी नाकाम रहे हैं। उत्तराखंड में जो कुछ हुआ वह राजनैतिक लिहाज से कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है। कांग्रेस इस फैसले के खिलाफ नैनीताल उच्च न्यायलय चुनौती दी गयी थी। जहां रावत की दलील पर उन्हें 31 मार्च को विश्वासमत हासिल करने का आदेश दिया गया था लेकिन उसी अदालत की डबल पीठ ने विश्वासमत पर रोक लगा दिया था। बाद में यह मामला सुप्रीमकोर्ट गया। जहां दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सर्वोच्च अदालत ने राज्य में राष्टपति शासन जारी रखने का फैसला लिया। लेकिन बाद में रावत को राज्य विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए वक्त दिया गया। वह बहुमत कल यानी 10 मई को होगा।
अगर सदस्यता बरकरार रही और दलबदल कानून प्रभावी न हुआ तो भाजपा क्या विजय बहगुणा की सरकार बनवा सकती है। इस स्थिति में भाजपा और बागियों के पास दोनों विकल्प खुलें होंगे। क्योंकि विधानसभा में कुल 70 विधायक हैं। जिसमें कांग्रेस के पास 36 थे और भाजपा की संख्या 28 रही। जिसमें भाजपा का एक विधायक निलंबित है। राज्य में दो बसपा जबकि तीन निर्दलीय और एक उत्तराखंड क्रांतिदल के विधायक हैं। कांग्रेस में बगावत होने के बाद अब उसके पास 27 विधायक हैं। सब कुछ ठीक रहा तो भाजपा और बागियों ने जिस रणनीति के तहत रावत सरकार को अपदस्त किया। उस स्थिति में भाजपा की सरकार बन सकती है। क्योंकि बागियों को लेकर विधानसभा में उसकी संख्या 36 हो रही है। बहरहाल अभी राज्य में सरकार बनाने के हालात किसी के पक्ष में नहीं है। लेकिन अगर फैसला बागियों के खिलाफ आया तो राज्य में रावत सरकार बन सकती है। क्योंकि उस स्थिति में विधायकों की संख्या 62 होगी। बहुमत सिद्ध करने के लिए कांग्रेस को केवल 32 की संख्या चाहिए। उस दशा में उसके पास 27 विधायक हैं जबकि 06 सहयोगी हैं। कांग्रेस की सरकार बन सकती है। जबकि भाजपा के पास कुल विधायकों की सख्ंया 28 है। क्योंकि जब तक बागियों पर फैसला नहीं हो जाता तब तक किसी भी सरकार का भविष्य अधर में रहेगा। लेकिन बनाने से भाजपा को रोंका भी नहीं जा सकता है। आंकड़ों और अंकों के संवैधानिक खेल में राज्य की हरिश रावत सरकार का पराभव हो गया। यह लोकतांत्रित व्यवस्था के लिए यह शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे राजनीतिक निहितार्थ चाहे जों हों। राज्य में राष्टपति शासन लगाने में केंद्रीय सरकार ने जिस उतावलेपन का भी परिचय दिया। लेकिन सर्वोच्च अदालत ने राज्य में लोकतांत्रित व्यवस्था की बहाली के लिए समय दिया है। अब कांग्रेस और रावत इस अग्नि परीक्षा में कितने खरे उतरते यह वक्त बताएगा। लेकिन अदालत का फैसला लोकतंत्र के लिए उचित है। लेकिन राजनीति में आंकड़ों की बाजीगरी पर भी लगाम लगनी चाहिए। इसका उपयोग विषम परिस्थतियों में होना चाहिए। जब देश और राज्य पर भारी संकट पैदा हो। इस तरह राजनीतिक हित के लिए सरकारों की बलि उचित नहीं है।
लेखकः स्वतंत्र पत्रकार हैं
उत्तराखंड में केंद्रीय मंत्रीमंडल की सिफारिश पर लागू राष्टपति शासन का भविष्य क्या हो यह कल तय हो जाएगा। क्योंकि सर्वोच्च अदालत के आदेश पर राज्य की विधानसभा में पूर्वमुख्यमंत्री हरीश रावत 10 मई को अपना विश्वासमत हासिल करेंगे। रावत पूरी तरह आश्वसत हैं कि उत्तराखंड में दोबारा उनकी सरकार बनेगी। क्योंकि विधानसभा अध्यक्ष ने जिन कांग्रेस के नौ बागी विधायकों को अयोग्य ठहराया था राज्य के उच्च न्यायालय ने भी उस पर मुहर लगा दी है। लेकिन अब यह मामला सुप्रीमकोर्ट में विचाराधीन है। सर्वोच्च अदालत आज शाम को इस पर शाम को फैसला करेगी। अगर सुप्रीमकोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले को सही ठहराया तो रावत को काफी हद तक राहत मिल सकती है। उत्तराखंड में उनकी सरकार बन सकती है। लेकिन अगर अदालत का फैसला विपरीत गया और अयोग्य बागी विधायकों को मतदान का अधिकार मिल गया तो उस स्थिति में हरीश रावत को राज्य विधानसभा में बहुमत साबित करना आसान नहीं होगा। भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों की निगाहें सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर टिकी हैं। राज्य में विश्वासमत के दौरान दो घंटे के लिए राष्टपति शासन हटा दिया जाएगा। रावत सरकार के अल्पमत में आने के बाद राज्यपाल की तरफ से 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने का समय दिया था लेकिन केंद्रीय मंत्रीमंडल ने जल्दबाजी में राज्य को राष्टपति शासन के हवाले कर दिया। इसके पीछे क्या कारण थे इसकी भी तस्वीर कुछ खास नहीं साफ नहीं हुई। सिर्फ विनियोग विधेयक का बहाना लिया गया। भाजपा ने उत्तराखंड के राजनीतिक हालात पर जरुरत से अधिक दिलचस्पी दिखायी। यह दीगर बात है कि कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की ओर से सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद रावत सरकार अल्पमत में आ गयी थी। लेकिन उसे अपना बहुमत साबित करने का मौका था। सरकार अपना बहुमत न सिद्ध कर पाती उस स्थिति में केंद्रीय मंत्रीमंडल राज्य में राष्टपति शासन की सिफारिश कर सकता था। लेकिन बहुत के पहले सरकार को बर्खास्त किया जाना कहां कि संवैधानिकता रही। यह लोकतांत्रित मर्यादाओं का खुला उल्लंघन है। यह कांग्रेस का आंतरिक संकट था। कांग्रेस इस संकट से चाहे जिस तरह से निपटती यह उसकी जिम्मेदारी थी लेकिन केंद्रीय मंत्रीमंडल और राज्य में प्रतिपक्षी भाजपा ने जिस तरह बागी विधायकों को संरक्षण दिया उससे साफ जाहिर होता है कि उत्तराखंड सरकार को अपदस्त करने में भाजपा और बागियों की अहम भूमिका है। दूसरी बात वक्त से पहले दिल्ली सरकार ने राष्टपति शासन की सिफारिश कर यह साबित कर दिया इस सियासी खेल में वह भी शामिल है। अरुणांचल के बाद बाद उत्तराखंड में जो कुछ देखने को मिला उससे यह साफ जाहिर होता है कि आंकड़ों की आड़ में सिर्फ बस सिर्फ सियासत का खेल खेला गया। अंकों की बाजीगरी लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। दिल्ली सरकार का तर्क रहा कि बहुमत साबित करने के लिए अलोकतांत्रित तरीके अपनाए जा रहे थे। विधायकों की डील का एक कथित स्टींग वीडिओ आने के बाद यह खुलासा हुआ कि विधायकों को प्रलोभन दिया जा रहा है। हलांकि रावत ने इसे पूरी तरह फर्जी बताया था। लेकिन दिल्ली सरकार को एक बहाना मिल गया। कांग्रेस के घरेलू झगड़े का सीधा लाभ उठाने में भाजपा कामयाब रही है। विजय बहगुणा और बागियों को आगे कर उसने जो राजनीतिक चाल चली और कामयाब रही। राज्य में पार्टी को बिखरने से बचाने में सोनिया और राहुल गांधी नाकाम रहे हैं। उत्तराखंड में जो कुछ हुआ वह राजनैतिक लिहाज से कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है। कांग्रेस इस फैसले के खिलाफ नैनीताल उच्च न्यायलय चुनौती दी गयी थी। जहां रावत की दलील पर उन्हें 31 मार्च को विश्वासमत हासिल करने का आदेश दिया गया था लेकिन उसी अदालत की डबल पीठ ने विश्वासमत पर रोक लगा दिया था। बाद में यह मामला सुप्रीमकोर्ट गया। जहां दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सर्वोच्च अदालत ने राज्य में राष्टपति शासन जारी रखने का फैसला लिया। लेकिन बाद में रावत को राज्य विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए वक्त दिया गया। वह बहुमत कल यानी 10 मई को होगा।
अगर सदस्यता बरकरार रही और दलबदल कानून प्रभावी न हुआ तो भाजपा क्या विजय बहगुणा की सरकार बनवा सकती है। इस स्थिति में भाजपा और बागियों के पास दोनों विकल्प खुलें होंगे। क्योंकि विधानसभा में कुल 70 विधायक हैं। जिसमें कांग्रेस के पास 36 थे और भाजपा की संख्या 28 रही। जिसमें भाजपा का एक विधायक निलंबित है। राज्य में दो बसपा जबकि तीन निर्दलीय और एक उत्तराखंड क्रांतिदल के विधायक हैं। कांग्रेस में बगावत होने के बाद अब उसके पास 27 विधायक हैं। सब कुछ ठीक रहा तो भाजपा और बागियों ने जिस रणनीति के तहत रावत सरकार को अपदस्त किया। उस स्थिति में भाजपा की सरकार बन सकती है। क्योंकि बागियों को लेकर विधानसभा में उसकी संख्या 36 हो रही है। बहरहाल अभी राज्य में सरकार बनाने के हालात किसी के पक्ष में नहीं है। लेकिन अगर फैसला बागियों के खिलाफ आया तो राज्य में रावत सरकार बन सकती है। क्योंकि उस स्थिति में विधायकों की संख्या 62 होगी। बहुमत सिद्ध करने के लिए कांग्रेस को केवल 32 की संख्या चाहिए। उस दशा में उसके पास 27 विधायक हैं जबकि 06 सहयोगी हैं। कांग्रेस की सरकार बन सकती है। जबकि भाजपा के पास कुल विधायकों की सख्ंया 28 है। क्योंकि जब तक बागियों पर फैसला नहीं हो जाता तब तक किसी भी सरकार का भविष्य अधर में रहेगा। लेकिन बनाने से भाजपा को रोंका भी नहीं जा सकता है। आंकड़ों और अंकों के संवैधानिक खेल में राज्य की हरिश रावत सरकार का पराभव हो गया। यह लोकतांत्रित व्यवस्था के लिए यह शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे राजनीतिक निहितार्थ चाहे जों हों। राज्य में राष्टपति शासन लगाने में केंद्रीय सरकार ने जिस उतावलेपन का भी परिचय दिया। लेकिन सर्वोच्च अदालत ने राज्य में लोकतांत्रित व्यवस्था की बहाली के लिए समय दिया है। अब कांग्रेस और रावत इस अग्नि परीक्षा में कितने खरे उतरते यह वक्त बताएगा। लेकिन अदालत का फैसला लोकतंत्र के लिए उचित है। लेकिन राजनीति में आंकड़ों की बाजीगरी पर भी लगाम लगनी चाहिए। इसका उपयोग विषम परिस्थतियों में होना चाहिए। जब देश और राज्य पर भारी संकट पैदा हो। इस तरह राजनीतिक हित के लिए सरकारों की बलि उचित नहीं है।
लेखकः स्वतंत्र पत्रकार हैं