देश में नौतिक आंदोलन की जरूरत : विकास तिवारी
https://www.shirazehind.com/2018/04/blog-post_466.html
हमारे
देश को शर्मशार करने वाली घटना बलात्कार को रोकने के लिए मेरा मानना है की
देश में नैतिक आंदोलन की जरूरत है, नयी पिढी को मानवीय मुल्यो की शिक्षा
दिये जाने की आवश्यकता है, हमें अपने देश के पाठ्यक्रम में बदलाव किये जाने
की आवश्यकता है, लोगो की विकृत मानसिकता को बदलने के लिए सार्थक प्रयास
किये जाने की आवश्यकता है, सबसे बडी आवश्यकता है की कानून, तकनीकी और सरकार
मिलकर अश्लील साहित्य और पॉर्न साइट्स पर बैन लगाये ,कम उम्र के बच्चो में
अपराध की वजह ही पॉर्न साइट्स है इसलिए इंटरनेट पर पॉर्न सामाग्री को
रोकना होगा । बलात्कार जैसे अपराध मानवता के लिए कलंक केे समान होते है ।
हमारे उपनिषद भी हमे शिक्षा देते है की हमारे जीवन में संयम जैसे
महत्वपूर्ण गुण अवश्य होने चाहिए -
इंद्रियों और
कामनाओं पर अंकुश ही संयम है संयम के बिना मनुष्य भाव शून्य समान है । संयम
मतलब अपने मन और इंद्रियों की प्रवर्तियों को रोकने को संयम कहते है
।मनोवृत्तियों पर, हृदय में उत्पन्न होने वाली कामनाओं पर और इंद्रियों पर
अंकुश रखना संयम है ।सर ध्रुव गुप्त जी पूर्व आई.पी.एस. का आज आर्टिकल पढ़ा
आपसे लगभग सहमत भी हूं, आपने लिखा है कि - बलात्कारी राम रहीम के बाद आज
बलात्कारी आसाराम का हश्र देखकर किसी को भी बहुत खुश होने की ज़रुरत नहीं
है। ये लोग व्यक्ति नहीं, हम पुरुषों के भीतर की दमित इच्छाओं और यौन
विकृतियों की बेशर्म अभिव्यक्ति मात्र हैं। राम रहीम और आसाराम थोड़े-बहुत
प्रायः सभी पुरुषों के भीतर मौजूद हैं। यह और बात है कि पैसों, प्रभुत्व,
साधनों और अवसर के अभाव में ज्यादातर लोगों के भीतर ये घुट-घुटकर दम तोड़
देते हैं। संपति, प्रभुत्व और अवसर प्राप्त होने के बाद ढोंगी बाबाओं और
संतों की ही नहीं, ज्यादातर नवधनाढ्यों, ग्लैमर उद्योग के लोगों, राजनेताओं
और अफसरों की दो ही महत्वाकांक्षाएं होती हैं - ऐश्वर्य के तमाम साधन
जुटाना और ज्यादा से ज्यादा स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाना। धन, भय या
प्रलोभन के बल पर जिन स्त्रियों का ये शारीरिक और मानसिक शोषण करते हैं, वे
स्त्रियां उनके लिए व्यक्ति नहीं, रोमांच, पुरुष अहंकार को सहलाने का
ज़रिया और स्टेटस सिंबल भर होती हैं। ठीक वैसे ही जैसे प्राचीन और मध्यकालीन
भारत में राज्य के आकार के अलावा रनिवास और हरम में रानियों और दासियों की
संख्या किसी भी किसी राजा, बादशाह या सामंत की सामाजिक प्रतिष्ठा तय किया
करती थी। आज इक्कीसवी सदी में भी तमाम प्रतिबंधों के बावजूद दुनिया के
ज्यादातर मर्दों की आंतरिक इच्छा कमोबेश ऐसी ही है। जिन लोगों के पास साधन
हैं, उनमें से ज्यादातर लोग नैतिकता औऱ कानून को धत्ता बताकर यही कर रहे
हैं। उनमें से राम रहीम और आसाराम जैसे जो गिनती के लोग पकडे जाते हैं,
समाज द्वारा पापी वही घोषित किए जाते हैं। जिनका भांडा अबतक नहीं फूटा, वे
सब पुण्यात्मा हैं। शायद हम पुरुषों को बनाने में ईश्वर से ही कोई बड़ी
तकनीकी त्रुटि हो गई थी जिसकी सज़ा सृष्टि की शुरुआत से आजतक स्त्रियां ही
भोग रही हैं !