भारतीय राजनीति का बदलता स्वरूप
परतंत्र (गुलाम) भारत में कुछेक संस्थाएं तो थी , लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार दिसंबर 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.ह्यूम द्वारा की गई थी। अंग्रेजी शासक इसे सुरक्षा नली ( सेफ्टी वाल्व) की तरह इस्तेमाल करना चाहती थी। लेकिन पं बाल गंगाधर तिलक सरीखे कुछ कांग्रेसी नेताओं के ब्यवहार से नाराज़ होकर अंग्रेजों ने 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना कराकर हिन्दू -मुस्लिम एकता को भंग करने का खडयंञ रचा।
लेकिन महामना मदनमोहन मालवीय की सक्रियता से भयभीत अंग्रेजी शासन ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना (सितम्बर 1925) को महामना मालवीय के प्रसिद्धि को रोकने का एक अच्छा अवसर समझा । लेकिन संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार एवं मालवीय के आपसी तालमेल से भी निराशा हांथ लगी। अंग्रेजी हुकूमत ने एक नई चाल के तहत राष्ट्रवादी कांग्रेसी नेता जिन्ना को गोलमेज सम्मेलन के दौरान मुस्लिम आरक्षण के नाम पर बरगलाने में जुटे। लेकिन साम्प्रदायिकता के आधार पर आरक्षण के विरोध में जब गांधी जी आमरण अनशन शुरू कर दिए तो मालवीय एवं जिन्ना दोनों गांधी जी के साथ दिखे। ऐसे समय में अंग्रेजों की नजर तेज तर्रार नेता बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर पर जाकर टिक गई, और उन्हें एक रियासत से आर्थिक सहायता दिलाने के एवज में एक बड़ा खेल खेला गया और हरिजन आरक्षण के नाम पर उन्हें भड़काने और अलग करने की कोशिश की गई जिसमें भरपूर कामयाबी भी मिली।
यह एक ऐसा कदम था, जिसमें गांधी को छोड़ अधिकांश कांग्रेसी भी विरोध नहीं कर सकते थे । ऐसे में हिन्दू समाज को विभाजित करने में भी एक बड़ी कामयाबी अंग्रेजों ने हासिल किया। इस प्रकार "ब्रिटिश फूट डालो राज करो की नीति"को लागू कर हिन्दू -मुस्लिम अलग करने के साथ ही हिन्दू समाज में भी विभाजन की आधारशिला रखी गई। जो आज भारतीय समाज के लिए अभिषाप बना हुआ है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी ने अधिसंख्य जनसंख्या वाले हरिजन , ब्राह्मण , मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ जोड़ते हुए जातिगत आधार पर बंट चुके समाज को ओजस्वी भाषणों से 17 वर्षों तक अपने साथ जोड़े रखा।
श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में एक बदलाव यह आया कि 1967 से क्षेञीय दलों का राज्यों में प्रभाव बढ़ने लगा। यही नहीं जनवरी 1951 में स्थापित भारतीय जनसंघ (दीपक चुनाव चिन्ह) सहित देश भर के सभी राजनीतिक दलों का कांग्रेस विरोधी आन्दोलन जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया 1977 में एक दल - जनता पार्टी नाम से गठित हुई। यहीं से मिली-जुली सरकार का सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन यह सरकार माञ 28 महीने ही चल पाई। क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षा में वृद्धि भी इस काल में बेतहाशा हुई। मिली जूली सरकारों की एक उपलब्धि यह रही कि शासन सत्ता (कुर्सी) बचाने के लिए भ्रष्टाचारी नेताओं को बर्दाश्त करने की आदत सी पड़ गई। नतीजा यह हुआ कि भ्रष्टाचार का संरक्षण शासन की आदत में सम्मिलित हो गया। भ्रष्टाचारी नेता समर्थन वापसी की धमकी देकर शासन सत्ता को मजबुर कर सकता था। मिली जूली सरकार भ्रष्टाचारियों के लिए स्वर्ग सिद्ध हुआ।
राजीव गांधी शासनकाल में बोफोर्स तोप घोटाले के नाम पर सत्ता प्राप्त करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने कुर्सी को सुरक्षित करने के लिए मंडल कमीशन को लागू करके अन्य पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण देकर जाति आधारित ब्यवस्था को और भी मजबूती प्रदान किया। वास्तव में जिस जाति ब्यवस्था को सामाजिक समरसता में बाधक कहा जाता रहा वहीं और भी मजबूती प्रदान किया गया। डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने अपने ही कुछ नेता मंत्री को जेल भेजा। अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी का गुजरात माडल शासन और भ्रष्टाचार मुक्त भारत के नारा का नतीजा यह हुआ कि 2014 में अपार बहुमत के साथ भाजपा एक बड़ी पार्टी के रूप में दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के साथ साथ अनेक राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब रही है ।
वर्तमान परिदृश्य यह है कि 2024 में होने वाले लोकसभा आम चुनाव को देखा जाए तो जातिगत आधार पर अपनी पहचान बनाने वाली क्षेञीय दलों में कांग्रेस के साथ महागठबंधन करके चुनाव में सत्ता प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है । वहीं उत्तर प्रदेश के एक सपा नेता द्वारा सनातन एवं ब्राह्मण विरोधी बयान देकर पिछड़े वर्ग को एक जूट करने का प्रयास किया गया,जो पार्टी के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। वहीं पिछड़े वर्ग में सनातन धर्म के समर्थन करने वाले नेताओं का महागठबंधन से मोह भंग हो रहा है ।जाति आधारित बसपा नेता मायावती ने शुभकामनाएं जातिगत आधार वाली क्षेञीय दलों की आलोचना करते हुए अकेला चुनाव मैदान में उतरने की बात कर रही हैं।
वहीं अससुदीन ओबैसी कांग्रेस का विरोध कर रहे हैं। विपक्ष का धैर्य तब टुटता दिखा जब सपा नेता अबू आजमी द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा में राष्ट्रगीत का विरोध करते देखा गया। इस प्रकार एक तरफ दलीय अनुशासन एवं नियंत्रण का अभाव दिख रहा है।
दुसरी तरफ सनातन संस्कृति सभ्यता परम्पराओं की वैज्ञानिकता को विश्व स्तर पर स्थापित कर स्वाभिमान पैदा करने की दुहाई दी जा रही है। एकं तरफ कदावर सपा नेता दारा सिंह चौहान द्वारा मोहभंग एवं ओम् प्रकाश राजभर का एन.डी.ए.के तरफ़ झुकाव तो दुसरी तरफ अपने अपने जातियों में पकड़ रखने वाले सक्रिय नेताओं को चुन-चुनकर एन.डी.ए. में शामिल करने की होड़ सी लगी है। ऐसे समय में दल बदल का सिलसिला जारी है। कुल मिलाकर आगे आगे देखिए होता है क्या ,?
प्रोफेसर (डॉ)अखिलेश्वर शुक्ला,पूर्व प्राचार्य एवं विभागाध्यक्ष - राजनीति विज्ञान, राजा श्री कृष्ण दत्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जौनपुर, उत्तर प्रदेश।
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