एक पल ही जियो फूल बनकर जियो, शूल बनकर ठहरना नहीं जिन्दगी
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“ओ रंग रली, कंज कली। नन्दन की मन्दारकली, तुम गम को सारी आयु रूप की महकी हुई जवानी में। मैं गीत रचूं अगवानी में। एक पल ही जियो फूल बनकर जियो, शूल बनकर ठहरना नहीं जिंदगी जैसे गीतों के प्रणेता हिन्दी साहित्य के कवि साहित्य वाचस्पति डा. श्रीपाल सिंह क्षेम का जन्म 2 सितम्बर 1922 को जनपद मुख्यालय से लगभग 10 किमी पश्चिम स्थित बशारतपुर गांव में हुआ। एक कृषक परिवार में जन्मे डा. क्षेम ने प्रारंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त किया। राज कालेज से माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। उन दिनों इलाहाबाद साहित्य का केन्द्र था। छायावाद के प्रमुख स्तंभों में जयशंकर प्रसाद को छोड़कर सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला एंव महादेवी वर्मा अपना डेरा जमाये हुये थे। नयी कविता के सशक्त हस्ताक्षर लक्ष्मीकांत वर्मा, डा. जगदीश गुप्त, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, डा. धर्मवीर भारती साहित्यिक संस्था परिमल से जुड़े थे। डा. क्षेम भी परिमल के सदस्य रहे। वैसे डा. क्षेम मूलत: गीतकार थे। इनके गीतों में प्रेम और सौन्दर्य की अनुपम छटा देखने को मिलती है। श्रृंगार रस से ओत प्रोत इनकी कविताओं में संयोग श्रृंगार का अद्भूत रूप झलकता है। रात भर चांदनी गीत गाती रही, बांह पर चांद हंसता रहा रात भर तथा मै तुम्हारी चांदनी पीता रहूंगा, चांद मेरे आज दग खोलो न खोलो, जैसे गीत संयोग श्रृंगार के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। छायावाद के युग की महत्वपूर्ण कवयित्री महादेवी वर्मा ने तो उन्हे गीत के राजकुमार की संज्ञा प्रदान की थी।