प्रकृति पुंज
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इंसान वो जीते जी मर जाते हैं,जब कभी कहीं माँगने जाते हैं,
जो देने लायक़ हैं, न कर देते हैं,
उनसे पहले ही वे मर जाते हैं।
इस समाज में सम्मानित जीवन,
जीने के अधिकार माँगने पड़ते हैं,
मेहनत के, ख़ुद के खून पसीने के,
मौलिक अधिकार माँगकर मिलते हैं।
सबको मौलिक अधिकार मिला
है संबिधान में जीवन जीने का,
कोई नज़र लगाये जीवन पर,
उठता सवाल है नैतिकता का ।
हरि इच्छा बलवान सदा है,
उसकी कृति का मान बड़ा है
ईश्वर कीन्ह चाहैं सोई होई,
करत अन्यथा आस न कोई।
उसका लिखा मेट सकै ना,
उसकी माया जान सकै ना,
रचना रची प्रकृति की उसने,
तीनों लोक बनाया जिसने।
आयु, प्रज्ञा, प्राण, प्रतिष्ठा,
माया, जीव, ब्रह्म की निष्ठा।
विधि का विधान कुछ ऐसा है,
शत स्वर्ग धरा पर सुरभित हैं।
धरती, अम्बर, हैं चमकते तारे,
मंगल, बुध, गुरू सात सितारे।
दिनकर का प्रकाश दिन में हो,
चाँदनी शशी की निशि में हो।
प्रकृति चक्र की सटीक गणना,
दिव्य अलौकिक मौलिक रचना,
दिन, सप्ताह, महीने सम्वत्सर,
ब्रह्मांड व्याप्त वेद रचित स्वर।
विधि के नियम से ही क्रमश:,
आती षटऋतु सारे जग में।
गर्मी, पावस, शरद, हेमंत, शीत
एवं वसंत आती हैं सब क्रम में।
लेखनी न सक्षम लिखकर कर दे
वर्णन, विधि की महिमा है अपार,
सुंदर सी सुरभित बहती है बयार,
अप्रतिम शान्ति, अद्भुत चमत्कार।
सत्यम, शिवम्, सुंदरम हो साक्षात,
कितने सागर, नदियाँ, पर्वत, पहाड़,
निर्झर झर, फैले निर्जन वन उपवन,
निशि वासर देते क्रमश: तम प्रकाश।
सुख दुःख के परिवर्तन का आकर,
है यही इस प्रकृति का जीवन,
कठिन चुनौती बन अक्सर आते
जाते रहते हैं यह नित परिवर्तन।
कुछ तो सफल बना देते हैं,
कंटक पथ सुगम बना देते हैं,
आदित्य संघर्ष परिवर्तनों से,
हर वह अनुभूति करा देते हैं।
कर्नल आदि शंकर मिश्र
जनपद—लखनऊ