हाइटेक होते बचपन में खोती जा रही है मासूमियत,घट रही है खिलौनों से दोस्ती
इक्कीसवीं सदी के बच्चों का भावनात्मक संसार बीसवीं सदी के बच्चों जैसा नहीं रहा। मां बाप के प्यार और दादा-दादी तथा नाना-नानी की कहानियों से उपजे संस्कार से आज का बचपन अछूता होता जा रहा है। बेजुबान खिलौनों से बचपन की दोस्ती घटती जा रही है। कभी बचपन इन्हीं खिलौनों के साथ खेलता - कूदता, दौड़ता- बैठता और रोता- हंसता था। इसके साथ-साथ समूह में खेले जाने वाले खेल जैसे सांप - सीढ़ी,कैरम, शतरंज, पुलिस-चोर, मंत्री- वजीर आदि खेलों का संसार कम होता जा रहा है जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण परिवार को एक दो बच्चों तक सीमित रखना और एकल परिवार के चलते चचेरे भाई बहनों का साथ न होना है।एकल परिवारों में दादा-दादी और नाना-नानी तथा चचेरे भाई बहनों का साथ छूटने और माता-पिता की रोजी रोटी की व्यस्तता और अभिभावकों में उपजे भौतिकवादी बुखार ने सबसे ज्यादा बचपन की खुशियों को छीना है।ये तो रही इनडोर खेलों की बात आउटडोर खेलों से बचपन और दूर होता जा रहा है क्योंकि आउटडोर गेम्स के लिए पूरी टीम की जरूरत होती है। बात अपने जनपद की करें जहां अभी ज्यादातर आबादी ग्रामीण इलाके में रहती है ऐसे में बचपन की हालत उतनी बदतर नहीं है जितनी कि ज्यादा शहरीकरण वाले जनपदों और मेट्रो सिटीज में है।विकास खंड मछलीशहर के गांव बामी में पिछले तीन दशकों से आंगनबाड़ी कार्यकत्री का कार्य कर रही मीरा सिंह कहती हैं कि पिछले बीस- तीस सालों में शहरों की बात छोड़िये गांवों के बच्चों का बचपन भी बहुत बदल गया है। बच्चों को मोबाइल की लत लग रही है। आंगनबाड़ी केंद्रों पर साथी बच्चों के साथ वे पहले जैसे घुल मिल कर नहीं रहते हैं। समूह के प्रति उनकी सक्रियता कम हुई है। पड़ोस के बच्चों के साथ वे कम समय देते हैं उनका ज्यादातर समय मोबाइल के स्क्रीन पर ही बीत रहा है।