परंपरा और संस्कृति परिवार की अखंडता का आधार : प्रो. दयाशंकर

जौनपुर। भारतीय समाज की जड़ें उसकी समृद्ध संस्कृति और परंपराओं में गहराई से रची-बसी हैं। यदि हमारी पारिवारिक संरचना टूटती है, तो हम भी पाश्चात्य समाज की उस विडंबनात्मक स्थिति की ओर बढ़ेंगे, जहाँ 'परिवार' मात्र एक सामाजिक औपचारिकता बनकर रह गया है। अतः भारतीय परिवार एवं सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित रखना आज की अनिवार्यता है।

इसी संदर्भ में, तिलकधारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग द्वारा प्रख्यात समाजशास्त्री प्रो. श्यामाचरण दुबे की पुण्यतिथि पर आयोजित व्याख्यान में सकलडीहा पी.जी. कॉलेज, चंदौली के प्रो. दयाशंकर सिंह यादव ने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि समाज की जड़ें अतीत में होती हैं, वर्तमान में वह जीवंत रहता है और भविष्य के लिए चिंतन करता है। वर्तमान काल भारतीय संस्कृति के संक्रमण का समय है, जहाँ उपभोक्तावाद की प्रवृत्ति सामाजिक विखंडन का कारण बन रही है। ऐसे में, हमें अपनी परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़े रहकर पारिवारिक ढांचे की रक्षा करनी होगी, अन्यथा परिवार की परिभाषा धीरे-धीरे धुंधली होती चली जाएगी और सामाजिक तानाबाना कमजोर पड़ जाएगा।


इस अवसर पर कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो. समर बहादुर सिंह ने अपने विचार रखते हुए कहा कि विलासितापूर्ण जीवनशैली हमारी संस्कृति के लिए चुनौती बन रही है। यदि हमें इस चुनौती से उबरना है, तो परिवार और ग्राम्य संरचना को विखंडित होने से रोकना होगा।


कार्यक्रम के संयोजक एवं समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. हरिओम त्रिपाठी ने समाज में परंपराओं की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि संतुलित विकास के लिए हमें अपनी जड़ों को मजबूत बनाए रखना होगा। अंधाधुंध आधुनिकता की दौड़ में भागने के बजाय हमें सोच-समझकर आगे बढ़ना चाहिए।


कार्यक्रम के संचालन की जिम्मेदारी समाजशास्त्र विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. संतोष कुमार ने निभाई। उन्होंने कहा कि नैतिक आचरण वाला व्यक्ति कभी अनुचित कार्य नहीं करता, इसलिए हमें रीति-रिवाज और नैतिकता के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए।


इस अवसर पर मोहम्मद हसन पीजी कॉलेज के डॉक्टर नीलेश सिंह, डॉ पूनम मिश्र, डॉक्टर सुमन सिंह, हर्ष सिंह, गौरव सिंह, अभिषेक यादव, अंकित करिश्मा, दीक्षा, रमन सहित बड़ी संख्या में एम.ए.प्रथम एवं द्वितीय वर्ष के छात्रों ने उत्साहपूर्वक सहभागिता की। संगोष्ठी में सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से विचारों का आदान-प्रदान हुआ, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि भारतीय समाज की स्थिरता के लिए परंपरा और संस्कृति का समन्वय अत्यंत आवश्यक है।

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