... और एक बार फिर नहीं हुई शादी, दूल्हे हुये निराश, बैरंग लौटी बारात
https://www.shirazehind.com/2013/08/blog-post_2664.html
जौनपुर। अनेकता में एकता का कहा जाने वाला भारतवर्ष अपनी विविधता और अलग-अलग परम्पराओं के चलते इसकी विश्व में एक अलग ही पहचान है। यहां कहीं की भाषा कहीं की गाली का रूप ले लेती है तो बरसाने की होली का दृश्य देखने देश-विदेश तक के पर्यटक मथुरा आते हैं। वैसे ही महर्षि यमदग्नि की तपोभूमि जौनपुर में सिरकोनी विकास खण्ड के कजगांव (टेढ़वा) में लगने वाली कजरी मेला देखने के लिये यहां के निवासियों के यहां दूर-दराज के रिश्तेदार कई दिन पहले ही आ जाते हैं और मेले का आनन्द उठाते हैं।
इस ऐतिहासिक मेले की पौराणिकता के बारे में कोई स्पष्ट रूप से तो नहीं बता पाता लेकिन सदियों से चले आ रहे अपने ढंग के इस मेले में गाजे-बाजे के साथ राजेपुर और कजगांव के नागरिक हाथी, घोड़ा, ऊंट पर चढ़कर दूल्हे आते हैं और बाजार के आखिरी छोर पर स्थित पोखरे के दोनों किनारे बारात सज जाती है तथा एक-दूसरे से पूर्व के वर्षों की तरह परम्परानुसार गाली-गलौज कर अपने दूल्हे की शादी के लिये ललकारते हैं एवं बगैर दूल्हन दूसरे वर्ष फिर बारात लेकर आने की बात कहते हुये चले जाते हैं। लगभग 87 वर्षों का इतिहास संजोये जफराबाद क्षेत्र के कजगांव (टेढ़वा बाजार) स्थित पोखरे पर राजेपुर और कजगांव की ऐतिहासिक बारातें आयीं जिसमें हाथी, घोड़े, ऊंट पर सवार बैण्ड-बाजे की धुन पर बाराती घण्टों जमकर थिरके लेकिन इस वर्ष भी दोनों गांव से आये दूल्हों की इच्छा पूरी नहीं हो सकी और बारात बगैर शादी एवं दूल्हन के बैरंग वापस चली गयी। कजगांव बाजार के आखिरी छोर पर स्थित विशाल पोखरे के पूर्वी छोर पर राजेपुर की तरफ से तथा पश्चिमी छोर पर कजगांव की तरफ से बारात इस वर्ष भी सोमवार को राजेपुर व कजगांव की आयी। हाथी, घोड़े, ऊंट पर वृद्ध एवं विकलांग दूल्हे सज-धज कर बैठे थे लेकिन उन्हें इस वर्ष भी निराशा हाथ लगी और बगैर शादी बारात वापस हो गयी। यह हकीकत नहीं, बल्कि कजगांव (टेढ़वा) की ऐतिहासिक कजरी मेले में परम्परागत ढंग से सदियों से चले आ रहे मेले के दृश्य की बात थी। यहां लगने वाले मेले की प्राचीनता एवं पौराणिकता का कोई लिखित इतिहास नहीं है लेकिन यहां के नागरिकों के अनुसार कजरी के दिन रात एवं बरसात हो जाने के चलते एक गांव की लड़कियां जो पोखरे में जरई डुबोने गयी थीं, वह दूसरे गांव में रूक गयीं और तभी से यह मेला शुरू हुआ। इस मेले से पूर्व जहां कजगांव में जगह-जगह मण्डप गड़ जाते हैं, महिलाएं मंगल गीत गाती हैं, वहीं राजेपुर में भी पूर्ण वैदिक रीति के अनुसार मण्डप गड़ते हैं और मांगलिक गीत होता है। कजरी मेले के दिन महिलाएं बाकायदे उसी ढंग से बारात विदा करती हैं जैसे वास्तविक शादी-विवाह बारात विदा होती है। गाजे-बाजे के साथ पोखरे पर बारात पहुंचती है और एक-दूसरे से दोनों छोर के बाराती एवं दूल्हे शादी के लिये ललकारते हैं लेकिन सूर्यास्त के साथ ही बगैर शादी के बारात बैरंग वापस हो जाती है। सुरक्षा की व्यवस्था को लेकर जिला प्रशासन पहले से ही चैकन्ना रहता है। पुलिस, पीएसी और अद्र्धसैनिक बल के जवान पूरे मेला क्षेत्र में फैले रहते हैं। चर्चा तो यहां तक रहती है कि पुलिस के जवान एवं बीच में पोखरा न हो तो शायद अति उत्साहित बाराती एक-दूसरे से भिड़ने में परहेज भी न करते। थानाध्यक्ष जफराबाद विनोद दूबे सहित आस-पास के कई थानों की पुलिस जहां मौजूद रहे, वहीं पुलिस अधिकारी मेले का चक्रमण करते देखे गये। कुल मिलाकर यह मेला पूरी तरह आपसी सौहार्द एवं परम्परागत ढंग का रहा और दोनों तरफ के दूल्हे इस वर्ष भी शादी न करने में असफल रहे और अगले वर्ष शादी होने की आस लगाये अपने बारातियों व घरातियों के साथ वापस घर चले गये।
इस ऐतिहासिक मेले की पौराणिकता के बारे में कोई स्पष्ट रूप से तो नहीं बता पाता लेकिन सदियों से चले आ रहे अपने ढंग के इस मेले में गाजे-बाजे के साथ राजेपुर और कजगांव के नागरिक हाथी, घोड़ा, ऊंट पर चढ़कर दूल्हे आते हैं और बाजार के आखिरी छोर पर स्थित पोखरे के दोनों किनारे बारात सज जाती है तथा एक-दूसरे से पूर्व के वर्षों की तरह परम्परानुसार गाली-गलौज कर अपने दूल्हे की शादी के लिये ललकारते हैं एवं बगैर दूल्हन दूसरे वर्ष फिर बारात लेकर आने की बात कहते हुये चले जाते हैं। लगभग 87 वर्षों का इतिहास संजोये जफराबाद क्षेत्र के कजगांव (टेढ़वा बाजार) स्थित पोखरे पर राजेपुर और कजगांव की ऐतिहासिक बारातें आयीं जिसमें हाथी, घोड़े, ऊंट पर सवार बैण्ड-बाजे की धुन पर बाराती घण्टों जमकर थिरके लेकिन इस वर्ष भी दोनों गांव से आये दूल्हों की इच्छा पूरी नहीं हो सकी और बारात बगैर शादी एवं दूल्हन के बैरंग वापस चली गयी। कजगांव बाजार के आखिरी छोर पर स्थित विशाल पोखरे के पूर्वी छोर पर राजेपुर की तरफ से तथा पश्चिमी छोर पर कजगांव की तरफ से बारात इस वर्ष भी सोमवार को राजेपुर व कजगांव की आयी। हाथी, घोड़े, ऊंट पर वृद्ध एवं विकलांग दूल्हे सज-धज कर बैठे थे लेकिन उन्हें इस वर्ष भी निराशा हाथ लगी और बगैर शादी बारात वापस हो गयी। यह हकीकत नहीं, बल्कि कजगांव (टेढ़वा) की ऐतिहासिक कजरी मेले में परम्परागत ढंग से सदियों से चले आ रहे मेले के दृश्य की बात थी। यहां लगने वाले मेले की प्राचीनता एवं पौराणिकता का कोई लिखित इतिहास नहीं है लेकिन यहां के नागरिकों के अनुसार कजरी के दिन रात एवं बरसात हो जाने के चलते एक गांव की लड़कियां जो पोखरे में जरई डुबोने गयी थीं, वह दूसरे गांव में रूक गयीं और तभी से यह मेला शुरू हुआ। इस मेले से पूर्व जहां कजगांव में जगह-जगह मण्डप गड़ जाते हैं, महिलाएं मंगल गीत गाती हैं, वहीं राजेपुर में भी पूर्ण वैदिक रीति के अनुसार मण्डप गड़ते हैं और मांगलिक गीत होता है। कजरी मेले के दिन महिलाएं बाकायदे उसी ढंग से बारात विदा करती हैं जैसे वास्तविक शादी-विवाह बारात विदा होती है। गाजे-बाजे के साथ पोखरे पर बारात पहुंचती है और एक-दूसरे से दोनों छोर के बाराती एवं दूल्हे शादी के लिये ललकारते हैं लेकिन सूर्यास्त के साथ ही बगैर शादी के बारात बैरंग वापस हो जाती है। सुरक्षा की व्यवस्था को लेकर जिला प्रशासन पहले से ही चैकन्ना रहता है। पुलिस, पीएसी और अद्र्धसैनिक बल के जवान पूरे मेला क्षेत्र में फैले रहते हैं। चर्चा तो यहां तक रहती है कि पुलिस के जवान एवं बीच में पोखरा न हो तो शायद अति उत्साहित बाराती एक-दूसरे से भिड़ने में परहेज भी न करते। थानाध्यक्ष जफराबाद विनोद दूबे सहित आस-पास के कई थानों की पुलिस जहां मौजूद रहे, वहीं पुलिस अधिकारी मेले का चक्रमण करते देखे गये। कुल मिलाकर यह मेला पूरी तरह आपसी सौहार्द एवं परम्परागत ढंग का रहा और दोनों तरफ के दूल्हे इस वर्ष भी शादी न करने में असफल रहे और अगले वर्ष शादी होने की आस लगाये अपने बारातियों व घरातियों के साथ वापस घर चले गये।

