भाजपा-सेनाः दोस्ती के साथ दिल भी टूटा

  प्रभुनाथ शुक्ल
महाराष्ट में भाजपा और शिवसेना की 25 साल पुरानी दोस्ती आखिरकार टूट गयी। उद्धव ठाकरे और अमितशाह के बीच बातचीत लाख कोशिश के बाद नहीं बनी। शिवसेना नेता भाजपा के मुंबई कार्यालय जाकर बातचीत की थी लेकिन दोनों दलों के संबंधों पर इसका असर नहीं दिखा। किया। सेना 150 सीटों पर अड़ी है लेकिन भाजपा को यह मांग स्वीकार नहीं थी। राज्य मंे आम चुनाव करीब हैं दोस्ती में फाट से दोनों दलों को भारी नुकसान उठाना पड सकता है। लेकिन भाजपा और शिवसेना के शीर्ष नेतृत्व और आरएसएस के हस्तक्षेप के बाद भी बात नहीं बन पायी। अािखरकार सीटों को लेकर दोनों दलों में आपसी तालमेल नहीं बैठ रहा था और तल्खी बढ़ती जा रही थी। आम चुनावों में यह विवाद दोनों के लिए घातक साबित हो सकता है। दोनों दल एक दूसरे को नीचा दिखाने में अड़े थे कोई झुकने को तैयार नहीं था। लेकिन यह विश्वास भी नहीं होता रहा था कि एक ही वैचारिक विचारधारा के दलों की दोस्ती इतनी जल्द टूट जाएगी और गठबंधन का फोड़ा फूट जाएगा। हलांकि सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने साफ-साफ कह दिया है कि वह भाजपा को 119 सीटों से अधिक देने के मूड में नहीं है। पहले ही यह तय हो चुका है कि राज्य मंे सेना और केंद्र में भाजपा को प्रमुखता दी जाएगी। शिवसेना 288 सीटों वाली महाराष्ट विधान सभा में 119 सीटों से अधिक नहीं देना चाहती थी। राज्य में भाजपा को भरोसा था कि वह बगैर गठबंधन भी महुबत के साथ सत्ता में वापसी कर सकती हैं। पार्टी के कुछ नेता भी चाहते थे कि भाजपा आम चुनाव के जंग में अपने बूते उतरे। लेकिन वह भाजपा का भ्रम था। वह उपचुनाव नतीजों के बाद भी मोदी मंत्र पर अटूट भरोसा जता रही है। भाजपा का तर्क था कि राज्य में 59 सीटें ऐसी हैं जहां शिवसेना कभी चुनाव नहीं जीत पायी है। लेकिन गठबंधन को लेकर भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व सतर्क और सजग दिख रहा था। दोनों दलों के बीच बातचीत का सिलसिला जारी था। लेकिन भाजपा सीटों पर अपने उम्मीदवारों की दावेदारी को अंतिम रुप देने ंमें जुट गयी थी। लेकिन बात नहीं बन पायी। हलांकि लोकसभा के आम चुनाव में शिवसेना से अधिक भाजपा को सीटें मिली हैं। जबकि सेना को मनसे की बढ़ती लोकप्रियता से भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। हलांकि अधिकांश उत्तर भारतीय मनसे और शिवसेना की नीति को पंसद नहीं करते हैं। वहां उनकी पहली पसंद कांग्रेस और दूसरे नम्बर पर भाजपा हो सकती है। राज्य के आंचलिक इलाकों सेना और भाजपा का असर आज भी शहरी इलाके से कम दिखता है। आखिरकार सेना और भाजपा को पुरानी खट्टी मिठृठी यादों को लेकर यह गठबंधन तोड़ना पड़ा। राजनीतिक हल्के और मीडिया में आयी खबरों से यह भी पता चला है कि मराठा क्षत्रपों को गुजरातियों की अगुवाइ्र्र भली नहीं दिखी। क्योंकि जब बाला साहब जिंदा थे तो उन्होंने एक बार मोदी बेहतर पीएम सुषमा स्वराज को बताया था। इस वक्त भाजपा की शीर्ष कमान गुजराती मोदी और शाह के हाथ में हैं। लिहाजा यह बात मराठों को कैसे पचती। अब देखना है कि सहयोगी दलों को सीटों के मामले पर दोनों दल कैसे मनाते हैं। भाजपा किसी भी स्थिति में गठबंधन को नहीं तोड़ना चाहती थी। क्योंकि महाराष्ट के साथ हरियाणा में भी आम चुनाव होने हैं। हरियाणा में कुलदीप विश्नोई के साथ भाजपा का गठबंधन टूट चुका हैं। राज्य में उसके पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसे वह आगे कर आम चुनाव की बैतरणी पार हो सके। अगर महाराष्ट में भी सेना और भाजपा का गठबंधन टूटता है दोनों दलों को नुकसान उठाना पड़ सकता है। लेकिन कहा जा रहा है कि राज्य में सेना की पकड़ मनसे के आने से ढिली पड़ रही है। उधर कांग्रेस एनसीपी की बात भी नहीं बनी है। कहीं एनसीपी और सेना वैचारिक भिन्नता के बाद भी एक जुट न हो जाएं। क्योंकि महाराष्ट की राजनीति में शरद पवार मराठा क्षत्रप के तौर पर जाने जाने हैं। उनकी पकड सभी दलों में हैं। फिलहाल यह तो वक्त बताएगा। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि भारतीय राजनीति में क्षेत्रिय दलों की भूमिका का विस्तार हो रहा है। यह कांग्रेस-भाजपा जैसे शीर्ष केंद्रीय दलों के लिए खतरा है। गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड, गोवा, कर्नाटका, मघ्य प्रदेश को किनारें करें तो बाकि के राज्यों में भाजपा और कांग्रेस जैसे दलों का अस्तित्व हासिये पर है। आंध्रप्रदेश, केरल, तमिलनाडू, तेलंगाना, उड़ीसा, बिहार, झारखंड और पूर्वोत्तर के राज्यों में क्षेत्रिय दलों का राजनीतिक कद बढ़ा है। दस राज्यों में हुए उपचुनावों में इसका असर परिणामों पर देखा गया है। इसका सीधा संबंध स्थानीय मसलों से बड़े दलों का मुंह मोडना है। महाराष्ट में सारा झगड़ा मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर दिखता है। भाजपा और सेना में मुख्य झगड़ा मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर था। गठबंधन टूटने से दोनों दलों को पता चल जाएगा कि कौन सबसे अधिक सीटें पाता है। सेना या भाजपा। किसके दांवों मंे कितना दम था। उधर रामदास आठवले की पार्टी आरपीआई भी दस सीटों से कम की मांग नहीं कर रही थी अब देखना है कि भाजपा और शिवसेना अपने सहयोगी दल आरपीआई और दूसरे दलों के साथ किस तरह तालमेल विठाते हैं। आठवले ने भी धमकी दी है कि अगर दस से कम सीटे मिली तो गठबंन बिखर सकता है। इस स्थिति में अगर सेना और भाजपा के बीच बात नहीं बनती तो इस झगडे़ का सीधा लाभ कांग्रेस और शरद पवार की राक्रंापा को मिलता। हलांकि देश भर में कांग्रेस विरोधी लहर को राक्रांपा भी भूनाना चाहती है। जिसका नतीजा है कि राज्य में अभी तक दोनों दलों के मध्य गठबंधन को लेकर तालमेल नहीं बन पाया। राज्य में आदर्श सोसाइटी को लेकर जहां कांग्रेस को अग्नि परीक्षा देनी होगी। वहीं उपचुनाव परिणामों को लेकर सेना थोडी शकून में दिखती है। क्योंकि उपचुनावों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है। वैसे तीन लोकसभा सीटों के परिणाम पर भले कोई असर न दिखा हो, लेकिन दस राज्यों की विस सीटों पर मोदी लहर का जादू नहीं चला। राजनैतिक लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा को जहां आठ सीटों का नुकसान उठाना पड़ा । वहीं राष्टीय स्तर पर जहां वह 34 सीटों पर थी वहीं उपचुनाव में उसकी रेटिंग 24 पर आकर रुक गयी। यह भाजपा, भगवा, मोदी के लिए चिंतन का विषय है। यूपी में में योगी आदित्यनाथ के सिवाय कोई बड़ा चेहरा प्रचार करने को नहीं आया। यहां मोदी विजन सबका साथ सबका विकास नारे के ठीक उल्टे भाजपा की वैचारिक नीति का प्रवाह बहता दिखा। हिंदुत्ववाद का जमकर तड़का लगाया गया। अमितशाह के सांगठनिक नीति का भी जादू बिखरता दिखा। भाजपा के स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथा की सांप्रदायिक शब्दावली ‘लवजेहाद‘ का भी असर नहीं दिखा। अग्नि परीक्षा में योगी के साथ साक्षी महाराज भी फेल हो गए। भाजपा के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। राज्य में काननू-व्यवस्था को लेकर लगातार आलोचना झेल रही अखिलेश सरकार ने मोदी मंत्र को जमीन दिखायी। इस पराजय के बाद भाजपा का अंर्तकलह पटल पर आ गया। ऐसी दशा में भाजपा जहां दिल्ली की सत्ता संभाल रही है वहीं राज्य में उसे सेना उसकी सहयोगी थी। लेकिन अब यह दोस्ती टूट चुकी है। इसका गुब्बार राज्य में होने वाले आम चुनावों में वोटरों को भरमाने के लिए दोनों दलों की ओर से किया जा सकता है। यहां नामाकंन की प्रक्रिया 27 सितंम्बर से होगी। अब गठबंधन की गांठ ढिली होने से देखना है कि राज्य की सत्ता जनता किसके हाथ सौंपती है।
लेखकः स्वतंत्र पत्रकार हैं

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