राजनीति की ठकुराई में पराजित लोकतंत्र

  प्रभुनाथ शुक्ल
उत्तराखंड में केंद्रीय मंत्रीमंडल की सिफारिश पर आखिरकार महामहिम ने राज्य में राष्टपति शासन लगा दिया। दुनिया भर में लोकतांत्रित व्यवस्था के लिए अपनी एक अलग छबि पेश करने वाले देश में खुले आम चुनी हुई सरकार का गला घोंट दिया गया। आंकड़ों और अंकों संवैधानिक खेल में राज्य की हरिश रावत सरकार का पराभव हो गया। लोकतांत्रित व्यवस्था के लिए यह शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे राजनीतिक निहितार्थ चाहे जों हों। राज्य में राष्टपति शासन लगाने में केंद्रीय सरकार ने जिस उतावलेपन का परिचय दिया उसे उचित नहीं कहा जा सकता है। सरकार सदन में अपना बहुमत नहीं सिद्ध कर पायी इसके पहले ही राज्य को राष्टपति शासन के हवाले कर दिया गया। यह संवैधानिक रुप से लाजमी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि राज्य में हरिश रावत सरकार लोकतांत्रित व्यवस्था के तहत चुनी हुई सरकार थी। उसे सरकार चलाने का बहुमत मिला था। इसके पहले वहां विजय बहगुणा मुख्यमंत्री थे। राज्यपाल ने सदन में रावत सरकार को 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने का समय दिया था लेकिन केंद्रीय मंत्रीमंडल ने जल्दबाजी में जिस व्यवस्था को अपनाया उसे कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता था।इसके पीछे क्या कारण थे इसकी भी तस्वीर कुछ खास नहीं साफ नहीं दिखती।  भाजपा ने उत्तराखंड के राजनीतिक हालात पर जरुरत से अधिक दिलचस्पी दिखायी। यह दीगर बात है कि कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की ओर से सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद रावत सरकार अल्पमत में आ गयी थी। लेकिन उसे अपना बहुमत साबित करने का मौका था। सरकार अपना बहुमत न सिद्ध कर पाती उस स्थिति में केंद्रीय मंत्रीमंडल राज्य में राष्टपति शासन की सिफारिश कर सकता था। लेकिन बहुत के पहले सरकार को बर्खास्त किया जाना कहां कि संवैधानिकता है। यह लोकतांत्रित मर्यादाओं का खुला उल्लंघन है। यह कांग्रेस का आंतरिक संकट था। कांग्रेस इस संकट से चाहे जिस तरह से निपटती यह उसकी जिम्मेदारी थी लेकिन केंद्रीय मंत्रीमंडल और राज्य में प्रतिपक्षी भाजपा ने जिस तरह बागी विधायकों को संरक्षण दिया उससे साफ जाहिर होता है कि उत्तराखंड सरकार को अपदस्त करने में भाजपा और बागियों की अहम भूमिका है। दूसरी बात वक्त से पहले दिल्ली सरकार ने राष्टपति शासन की सिफारिश कर यह साबित कर दिया इस सियासी खेल में उसकी भी अहम भूमिका है। हिमंाचल के बाद उत्तराखं में जो कुछ देखने को मिला उससे यह साफ जाहिर होता है कि आंकड़ों की आड़ में सिर्फ बस सिर्फ सियासत का खेल खेला गया। अंकों की बाजीगरी लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है। दिल्ली सरकार का तर्क रहा कि बहुमत साबित करने के लिए अलोकतांत्रित तरीके अपनाए जा रहे थे। विधायकों की डील का एक कथित स्टींग वीडिओ आने के बाद यह खुलासा हुआ कि विधायकों को प्रलोभन दिया जा रहा है। हलांकि रावत ने इसे पूरी तरह फर्जी बताया है। लेकिन दिल्ली सरकार को एक बहाना मिल गया। कांग्रेस के घरेलू झगड़े का सीधा लाभ उठाने में भाजपा कामयाब रही है। विजय बहगुणा और बागियों को आगे कर उसने जो राजनीतिक चाल चली वह पूरी तरह कामयाब रही। राज्य में पार्टी को बिखरने से बचाने में सोनिया और राहुल गांधी नाकाम रहे हैं। उत्तराखंड में जो कुछ हुआ वह राजनैतिक लिहाज से कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है। आगामी दिनों में उसे पांच राज्यों में विधानसभा चुनाओं का सामना करना है। लेकिन वह घरेलू झगड़े से ही नहीं निपट पा रही है। हलांकि बगावत की नींव तो उसी दिन पड़ गयी थी जिस दिन बहगुणा सरकार को हटा कर हरीश रावत को राज्य में सरकार की कमान दी गयी थी। ऐसी स्थिति में विजय बहगुणा और बागी वक्त के इंतजार में रहे मौका पाते ही अपना पांशा डाला। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व पार्टी पर अपनी पकड़ खोता जा रहा है। कांग्रेस संसद में मोदी सरकार को शोरगुल से घेरने के बजाय अपने टूटते घर को पहले बचाए। वरना देश की सबसे बड़ी और पुराने राजनैतिक दल का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। संसद में 44 का आंकड़ा इसी तरफ इशारा करता है। लेकिन उत्तराखंड में जो कुछ हुआ उसे पूरी तरह लोकतांत्रित नहीं कहा जा सकता है। संख्या बल के कारण ही एक वोट से अटल जी की सरकार गिर गयी थी। यह लोकतांत्रित व्यवस्था के लिए सबसे खतरनाक जहर है। बदलते राजनैतिक हालता के साथ इस कानून की भी समीक्षा होनी चाहिए। फिलहाल राज्य में राजनैतिक संकट अभी खत्म होने वाला नहीं है। कांग्रेस इस फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट भी जा सकती है। क्योंकि विश्वासमत हासिल करने से पहले एक चुनी हुई सरकार को बर्खास्त किया गया  है। हलांकि यह बाद की बात होगी। सवाल उठता है कि पार्टी से बगावत करने वाले उन 09 विधायकों की सदस्यता का क्या होगा। उनकी विधायकी रहेगी या जाएगी। क्योंकि राज्य में राष्टपति शासन आने के बाद विधासभा अध्यक्ष का अधिकार भी खत्म हो गया है। बागी विधायकों को तत्कालीन स्पीकर गोविंद कुंजवाल ने सदस्यता के संबंध में नोटिस भी जारी किया था। लेकिन उसकी समय सीमा बीत गयी और बागियों की ओर से नोटिस का जबाब नहीं दिया गया। अब बागियों का क्या होगा। क्या उनकी सदस्यता खत्म होगी। क्या उन पर दल बदल कानून लागू होगा। अगर उन पर यह कानून लागू हुआ तो इस खेल का क्या होगा। आने वाले वक्त में भाजपा क्या सरकार बना सकती है। आंकड़ों के खेल में क्या यह संभव है। अगर बागियों की सदस्यता पर खतरा मंडराता रहा तो राज्य में बनने वाली भाजपा सरकार भी संकट से नहीं उबर सकती है। अगर सदस्यता बरकरार रही और दलबदल कानून प्रभावी न हुआ तो भाजपा क्या विजय बहगुणा की सरकार बनवा सकती है। इस स्थिति में भाजपा और बागियों के पास दोनों विकल्प खुलें होंगे। क्योंकि विधानसभा में कुल 70 विधायक हैं। जिसमें कांग्रेस के पास 36 थे और भाजपा की संख्या 28 रही। जिसमें भाजपा का एक विधायक निलंबित है। राज्य में दो बसपा जबकि तीन निर्दलीय और एक उत्तराखंड क्रांतिदल के विधायक हैं। कांग्रेस में बगावत होने के बाद अब उसके पास 27 विधायक हैं। सब कुछ ठीक रहा तो भाजपा और बागियों ने जिस रणनीति के तहत रावत सरकार को अपदस्त किया। उस स्थिति में भाजपा की सरकार बन सकती है। क्योंकि बागियों को लेकर विधानसभा में उसकी संख्या 36 हो रही है। बहरहाल अभी राज्य में सरकार बनाने के हालात किसी के पक्ष में नहीं है। क्योंकि जब तक बागियों पर फैसला नहीं हो जाता तब तक किसी भी सरकार का भविष्य अधर में रहेगा। लेकिन बनाने से भाजपा को रोंका भी नहीं जा सकता है। राज्य में जिस तरह राजनीति अदावत और सियासत का महाभारत खेला गया वह लोकतांत्रित व्यवस्था के लिए शुभ नहीं है। जितनी जल्द एक अच्छी सरकार प्रतिस्थापित हो जाती है उतना बेहतर होगा। अब देखिए आगे क्या होता है।

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