सृष्टि का रहस्य

निरन्तर गति या परिवर्तन इस सृष्टि की अन्तर्निहित प्रवृत्ति है। फिर चाहे वह आध्यात्मिक संसार हो या भौतिक या फिर मानसिक, गति या तो ऊपर की ओर होती है या नीचे की ओर। प्रकृति का कोई भी पहलू स्थिर नहीं है, इसमें उत्थान और पतन का क्रम निरन्तर है। आप किस पद पर हैं या कितने प्रभावशाली हैं, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि यह सब कुछ अस्थायी है। अब तो आधुनिक विज्ञान भी यह कहता है कि जो ऊपर जाता है उसे नीचे भी आना पड़ता है। जब न्यूटन के सिर पर सेब गिरा तो आधुनिक विज्ञान ने हमें गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत दिया लेकिन वैदिक ऋषियों ने हमें बताया था की यह सेब पहले एक अलग स्वरुप में एक बीज में विद्यमान था - जो बीज उस सेब में भी है - जो की पहले ज़मीन से ऊपर उठा और अब नीचे आ रहा है। यह आधुनिक मानव के लिए बहस का विषय है कि क्या पहले नीचे आया या ऊपर गया किन्तु वैदिक ऋषि इसे माया का चक्र कहते हैं जो कि अनन्त है। वैदिक ऋषियों ने हमें इस माया जाल से बाहर निकलने का मार्ग दिखाया है और हमें बताया कि कैसे मुर्गी और अंडा या सेब और बीज एक साथ ही उत्पन्न हुए हैं। गुरु, जो कि मानव जाति के लिए वैदिक ऋषियों का सबसे बड़ा उपहार है, इस मायाजाल से बाहर निकलने का मार्ग जानते हैं और आपके अपने अनुभवों के माध्यम से इस सृष्टि का ज्ञान प्रदान करते हैं। कलियुग में अधिकतर कथित गुरु स्वयं ही माया जाल में फंसे हुए हैं। जब आप उनके पास मुक्त होने के लिए जाते हैं तो वह अधिक धन, बेहतर स्वास्थ्य और बेहतर संबंधों का भरोसा दिलाकर इस माया में और फँसाते हैं। एक साधारण मनुष्य को यह ज्ञान ही नहीं होता कि इस भौतिक संसार के परे क्या है और वह सारा समय भौतिक पदार्थों के पीछे नष्ट कर देता है। वह समझना ही नहीं चाहता कि यहाँ सभी कुछ नश्वर है जो स्वयं ही एक दिन उससे छूट जायेगा। इसलिए वह अस्थायी को स्थायी करने की आशा से गुरु की खोज में लग जाता है। वह भूल जाता है की गुरु का शरीर भी तो नश्वर है फिर अस्थायी में स्थायित्व की खोज करना तो मूर्खता है। मानव जन्म का उद्देश्य तो इस संसार का अनुभव करते हुए इसके परे चेतना के उच्च स्तरों में जाना है, जन्म - मरण के बन्धनों से मुक्त होना है। इस उद्देश्य की पूर्ती केवल गुरु के द्वारा ही संभव है, गुरु जो माया के बंधनों से परे हों। गुरु ही इस संसार की निरर्थकता और सत्य का ज्ञान देकर एक मनुष्य में वैराग्य के बीज बोते हैं किन्तु उस बीज को विकसित करना तथा उसका पालन - पोषण तो आप पर ही निर्भर है, केवल यही सत्य है। वैराग्य वह स्थिति होती है जहाँ कुछ भी होने या न होने से व्यक्ति विचलित या प्रभावित नहीं होता। कुछ बड़ा और बेहतर मिलने की संतुष्टि में निम्न स्तर के भोगों को छोड़ना सरल होता है किन्तु योग की अवस्था उसे ही प्राप्त हो सकती है जिसे कुछ मिलने या न मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। आप अपनी शक्ति और क्षमता से भौतिक लोक को तो जीत सकते हैं यहाँ तक कि स्वर्ग के सुखों को भी प्राप्त कर सकते हैं किन्तु त्रिदेव को नहीं जीत सकते। वह तो वैराग्य के चरम प्रतीक हैं। वह स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करते बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि का प्रतिनिधित्व करते है। वैराग्य ही उन तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है। जहाँ भोग है वहीं रोग या पीड़ा है चाहे वो पृथ्वी लोक हो या देवलोक। स्मरण रहे कि देवलोक तक पहुंचने के उपरांत पुनः अवतरण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है क्योंकि जो ऊपर जाता है उसे नीचे तो आना ही होता है। केवल वैराग्य ही भोग या रोग की पीड़ा को प्रभावहीन कर सकता है। यही स्थिति एक मनुष्य को त्रिदेव में विलीन कर सकती है । प्रतिदिन होने वाले घोटाले, मिटटी, पानी और हवा में प्रदूषण, आपस में ईर्ष्या और द्वेष की भावना तथा गुरु का अनादर, इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि आज वेदों के ज्ञान का अनुसरण नहीं किया जा रहा है और दुनिया अपने अंत की ओर अग्रसर हो रही है। मैं आधुनिक मनुष्य को सत्य का अनुभव करने के लिए आमंत्रित करता हूँ ताकि वह पुनः जन्म लेने से और इस जन्म से जुड़े कष्टों से भी बच सके और अपनी आत्मा की मुक्ति की ओर अग्रसर हो सके।

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