अब के संपादकों की कलम मालिकों के हाथ से चलती
https://www.shirazehind.com/2017/05/blog-post_314.html
वह 30 मई का ही दिन था,
जब देश का पहला हिन्दी अखबार 'उदंत मार्तण्ड' प्रकाशित हुआ। इसी दिन को
हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दी के पहले अखबार
के प्रकाशन को 189 वर्ष हो गए हैं। इस अवधि में कई समाचार-पत्र शुरू हुए,
उनमें से कई बन्द भी हुए, लेकिन उस समय शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का यह
सिलसिला बदस्तूर जारी है। लेकिन, अब उद्देश्य पत्रकारिता से ज्यादा
व्यावसायिक हो गया है।
उदंत मार्तण्ड का का प्रकाशन मई, 1826 ई. में कोलकाता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। पंडित जुगलकिशोर सुकुल ने इसकी शुरुआत की। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकलते थे, किन्तु हिन्दी में कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था। पुस्तकाकार में छपने वाले इस पत्र के 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए। ...और करीब डेढ़ साल बाद ही दिसंबर 1827 में इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। उस समय बिना किसी मदद के अखबार निकालना लगभग मुश्किल ही था, अत: आर्थिक अभावों के कारण यह पत्र अपने प्रकाशन को नियमित नहीं रख सका।
हिंदी प्रिंट पत्रकारिता आज किस मोड़ पर खड़ी है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। उसे अपनी जमात के लोगों से तो लोहा लेना पड़ रहा है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौतियां भी उसके सामने हैं। ऐसे में यह काम और मुश्किल हो जाता है।
एक बात और...हिंदी पत्रकारिता ने जिस 'शीर्ष' को स्पर्श किया था, वह बात अब कहीं नजर नहीं आती। इसकी तीन वजह हो सकती हैं, पहली अखबारों की अंधी दौड़, दूसरा व्यावसायिक दृष्टिकोण और तीसरी समर्पण की भावना का अभाव। पहले अखबार समाज का दर्पण माने जाते थे, पत्रकारिता मिशन होती थी, लेकिन अब इस पर पूरी तरह से व्यावसायिकता हावी है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि हिंदी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर (रज्जू बाबू) और प्रभाष जोशी दो ऐसे संपादक रहे हैं, जिन्होंने अपनी कलम से न केवल अपने अपने अखबारों को शीर्ष पर पहुंचाया, बल्कि अंग्रेजी के नामचीन अखबारों को भी कड़ी टक्कर दी।
आज वे हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनके कार्यकाल में हिन्दी पत्रकारिता ने जिस सम्मान को स्पर्श किया, वह अब कहीं देखने को नहीं मिलता। दरअसल, अब के संपादकों की कलम मालिकों के हाथ से चलती। हिन्दी पत्रकारिता आज कहां है, इस पर निश्चित ही गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है।
उदंत मार्तण्ड का का प्रकाशन मई, 1826 ई. में कोलकाता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। पंडित जुगलकिशोर सुकुल ने इसकी शुरुआत की। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकलते थे, किन्तु हिन्दी में कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था। पुस्तकाकार में छपने वाले इस पत्र के 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए। ...और करीब डेढ़ साल बाद ही दिसंबर 1827 में इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। उस समय बिना किसी मदद के अखबार निकालना लगभग मुश्किल ही था, अत: आर्थिक अभावों के कारण यह पत्र अपने प्रकाशन को नियमित नहीं रख सका।
हिंदी प्रिंट पत्रकारिता आज किस मोड़ पर खड़ी है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। उसे अपनी जमात के लोगों से तो लोहा लेना पड़ रहा है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौतियां भी उसके सामने हैं। ऐसे में यह काम और मुश्किल हो जाता है।
एक बात और...हिंदी पत्रकारिता ने जिस 'शीर्ष' को स्पर्श किया था, वह बात अब कहीं नजर नहीं आती। इसकी तीन वजह हो सकती हैं, पहली अखबारों की अंधी दौड़, दूसरा व्यावसायिक दृष्टिकोण और तीसरी समर्पण की भावना का अभाव। पहले अखबार समाज का दर्पण माने जाते थे, पत्रकारिता मिशन होती थी, लेकिन अब इस पर पूरी तरह से व्यावसायिकता हावी है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि हिंदी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर (रज्जू बाबू) और प्रभाष जोशी दो ऐसे संपादक रहे हैं, जिन्होंने अपनी कलम से न केवल अपने अपने अखबारों को शीर्ष पर पहुंचाया, बल्कि अंग्रेजी के नामचीन अखबारों को भी कड़ी टक्कर दी।
आज वे हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनके कार्यकाल में हिन्दी पत्रकारिता ने जिस सम्मान को स्पर्श किया, वह अब कहीं देखने को नहीं मिलता। दरअसल, अब के संपादकों की कलम मालिकों के हाथ से चलती। हिन्दी पत्रकारिता आज कहां है, इस पर निश्चित ही गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है।
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