हिंदुत्व विरोध का बदला राष्ट्रवाद से क्यों ?
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प्रभुनाथ शुक्ल
अवाम की सरजमीं से राष्ट्रविरोध की आग निकल रहीं है। दिल्ली
और काश्मीर में देश के खिलाफ बगावती नारे लगाए जा रहें हैं । भारत में रह
कर पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे बुलंद किए जा रहे हैं । यह चिंता और चिंतन
का विषय है । हमारे शहीदों में अगर कोई जिंदा होता तो वह खुद पर कितना
पछताता। उसे कितनी आत्म ग्लानि और खुद से घृणा होतीं । काश हम देश पर क्यों
मिटे । वास्तव में कितनी उदार है हमारी सहिष्णु संस्कॄति। कितने लचर और
लाचार कानून का राज है । बावज़ूद इसके दुनिया भर में असहिष्णुता का डंका
पीटा जा रहा है । देश की मानी जानी शैक्षणिक संस्था जवाहरलाल नेहरू
यूनिवर्सिटी में भारत विरोधी नारे लग रहे हैं । राष्ट्रद्रोही अफजल गुरू और
मकबूल भट्ट को शहीद बताया जा रहा है । भारत पर असहिष्णुता का ठीकरा
फोड़ने वाले ऐसे राष्ट्रद्रोहीयों से सवाल क्यों नहीँ पूछा जाता। जिन
शैतानो को महिमामंडन किया जा रहा है क्या उनको तालिबानी संस्कृति के आधार
पर फांसी की सजा दी गयी थी ? भारत के सहिष्णु कानून ने उन्हें अपनी
बेगुनाही साबित करने का पूरा मौका दिया । जो इस तरह का बावेला मचा रहें हैं
और भारत की बर्बादी का सपना देख रहें हैं , उन्होंने क्या अपने उस आका
पाकिस्तान से यह उम्मीद पाल रखी है कि अगर ऐसा सब कुछ पाक में भी वे कर
सकते हैं ? भारत में हम तिरंगा आग के हवाले कर सकते हैं उसे पैरों तले
कुचल सकते हैं , पाकिस्तान जिन्दाबाद कर सकते हैं । क्या इतनी लचीली उदारता
पकिस्तान भी सहन कर सकता हैं । क्या पाकिस्तान में भी रहकर राष्ट्रविरोधी
नारे लगाए जा सकते हैं ? वहाँ के झंडे को पैरों तले रौंदा जा सकता है।
पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाए जा सकते हैं ? इस हरकत को क्या पाक सरकार
और वहाँ की सेना बहरी हो सुनती रहेगी ? शायद नहीँ । तो यह सब भारत में ही
क्यों किया कराया जा रहा है । देश और उसकी बहुरंगी संस्कृति को चोट क्यों
पहुँचायी जा रही है । ऐसी तागतो को राजनैतिक संरक्षण क्यों दिया जा रहा
हैं । इसके पीछे कौन है । देश को बांटने वाली तागतो को राजनीति और राजनेता
क्यों संरक्षण दे रहें हैं ? राष्ट्रीय स्वाभिमान पर भी वामपंथ , काँग्रेस
और आप समेत सारे दल राजनीति क्यों कर रहें हैं ? देश के खिलाफ आवाज़ उठाने
वाले जेएनयू के छात्रों और कन्हैया कुमार के साथ उस प्रोफेसर को बचाने की
कोशिश और राजनैतिक अड़ंगेबाजी क्यों की जा रही है । कानून को खुले हाथों से
काम करने देना चहिए । देश राजनैतिक दलों और छात्र संगठनों की जागीर नही है
। देश की हिफाज़त में हमारे दस सैनिक बर्फ की चादर में जिंदा दफन हो गए ।
उन सैनिकों की सुरक्षा को लेकर खबरिया चैनलों पर कोई बहस नहीँ दिखी । यह
आवाज़ नही सुनी गयी कि जवानों की सुरक्षा के इंतजाम बेहतर होने चाहिए जिससे
दोबारा इस तरह की वारदात न हो लेकिन देश के खिलाफ बगावती आवाजों के प्रति
दरियादिली दिखायी जा रही है । शर्म आनी चाहिए इस तरह की राजनीति पर ।
काँग्रेस युवराज बेहद संजीदा दिखते हैं । उन पर काँग्रेस को पुनर्जीवित
करने की ज़िम्मेदारी है । लेकिन इस तरह की राजनीति से वह काँग्रेस में नयी
जान नहीँ डाल सकते हैं । हैदराबाद यूनिवर्सिटी का मामला हो या देलही विवि
का सब में विपक्ष को घेरने की आदत पड़ गयी है । प्रदर्शन राहुल का मनपसंद
विषय बन गया है । लेकिन इससे बात बननेवाली नही है । जिस अफजल को महिमा
मंडित कर भारत की बर्बादी के सपने देखे जा रहे है वह मंसूबा पूरा होनेवाला
नहीँ है । पाकिस्तान जिंदाबाद करनेवाले और उनके सियासी हिमायती यह भूल गए
हैं कि अवाम और उसके लोग राजनीति की भाषा और परिभाषा अच्छी तरह समझते हैं ।
वक्त आने पर उसका जवाब देना भी जानते हैं । अवाम और उसके सिपाही किसी से
देश भक्क्ति का प्रमाण नहीँ माँगते हैं , समय अपने आप सब कुछ साफ कर देता
है । आज जिस अफजल को शहीद बताने की नापाक कोशिश की जा रही है , उसकी फांसी
किसके राज में हुई । अचानक उमडी राहुल गाँधी की यह श्रध्दा उस दौरान कहाँ
थी । उस वक्त काँग्रेस और राहुल गाँधी ने अफजल की फाँसी क्यों होने दी ।
उनकी तरफ़ से जिस अभिव्यक्ति के आजादी की बात कहीँ जा रही है उस दौरान
राहुल और उनकी काँग्रेस कहाँ थी । उस वक्त जेऐनयू का वह प्रोफेसर और दिल्ली
विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार कहाँ थे । तब उनका यह राष्ट्रीय
अभद्र स्वभिमान कहाँ था ? अब तक वामपंथी और काँग्रेस कहाँ खोयी रही ? किसके
पास है इसका जवाब । देश को चुनावी राजनीति से अलग रखा जाए । दोषियों को
हरहाल में दंड मिले । देश पर राजनीति बंद होनी चाहिए । राष्ट्र सत्ता और
सिंहासन की सीमा से परे है । हमें इसका ख़याल रखना होगा । काँग्रेस और
प्रतिपक्ष ने इसरत जहाँ एनकाउंटर पर भी गुजरात पुलिस और उस समय के
मुख्यमंत्री और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर फर्जी हत्या
का आरोप लगाया था । लेकिन आज हेडली की अदालती गवाही के बाद ज़मीन झाँक रहे
हैं । इसरत को बिहार की बेटी बतानेवाले चुप क्यों हैं । क्या यह भी मोदी ,
भाजपा और संघ की साजिश है । बेशर्म राजनीति को जाने कब शर्म आएगी । राजनेता
और राजनीति जाने कब वोट बैंक के दायरे और सिंहासन से बाहर आएगी। उसकी
चिंता कब देश उसकी जनता , विकास और उसका राष्ट्रवाद बनेगा ? देश और उसके
विकास के लिए सकारात्मक राजनीति की जरूरत है । वास्तव में यह राष्ट्रद्रोह
तो मंचीय है । छात्रों को मोहरा बनाया गया है । इन सब के पीछे बड़ी तागते
हैं । दरअसल इसकी मुख्य वजह संघ पोषित हिंदुत्व विचारधारावाली भाजपा और
मोदी सरकार है । धर्मनिरपेक्षता की खाल ओढ़नेवाली काँग्रेस और वामपंथ को यह
रास नहीँ आ रहा है । उन्हें डर है की अगर पाँच साल में मोदी सरकार अच्छा
काम कर लेती है तो वह उधोगपतियों और आम जनता की पसंद बन जाएगी । मोदी और
उनका संघ दोबारा सत्ता में लौटा तो फ़िर गैर भाजपा दलों की वापसी मुश्किल
होगी । ऐसी स्थिति में काँग्रेस , वामपंथ और इतर राजनैतिक दल और गैर
हिंदूवादी संगठन के लोग यह छद्म अभियान छेड़ा है । मोदी सरकार जब से सत्ता
में आयी है उसे बदनाम करने की कोशिश जारी है ।यह एक सोची समझी रणनीति है ।
क्योंकि हिंदुत्व की बात करना गुनाह बनता जा रहा है। लेकिन सेकुलरिज्म की
खाल ओढ़ कर चाहे जितने घड़ियाली आँसू निकाले जा सकते हैं । आतंकी को शहीद
बताना और उसकी बरसी इसी का हिस्सा है । जिसे राहुल गाँधी अभिव्यक्ति के
दायरे में ला रहे हैं और आवाज दबाने वाले को सबसे बड़ा राष्ट्रद्रोही बता
रहे हैं । काँग्रेस को अगर आतंकवाद और अफजल से इतनी दिल लगी रही तो फाँसी
के बाद उसका स्मारक बना उसे महिमा मंडित करना चहिए था। इस देश में जब जाति
और धर्म की आड़ में ददुवा का मंदिर बना पूजा- अर्चना की जा सकती है तो अफजल
और दूसरे आतंकियों का क्यों नहीँ ? देश की राजनीति को अलग दिशा में मोड़ा
जा रहा है । राजनीति के केन्द्र बिंदु में सत्ता और सिंहासन बहुमूल्य हो
चला है । आंतरिक लोकतंत्र मर चुका है । देश उसका विकास एवं नागरिकों के
प्रति कर्तव्य का अभाव हो चला है । सभी को अपने को खोने का डर है । देश में
जब से मोदी की सरकार बनी है , तभी से हिंदुत्व को निशाने पर रखा जा रहा है
। क्योंकि आनेवाले समय में पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं । बिहार
चुनाव में संघ , भाजपा , मोदी पर हमला और असहिष्णुता का मंत्र सफल रहा।
जिससे गैर संघीय विचारधारा के दल काफी उत्साहित हैं । क्योंकि मोहनभागवत के
आरक्षण और मोदी के डीएनए वाले बयान को खूब हवा दी गयी । इसके बाद शाह का
पाकिस्तान वाला बयान भी आग में घी का काम किया । अब बेमुला की मौत और
दिल्ली छात्रसंघ की आड़ में राजनीति नवनीत मथे जा रहे हैं । लेकिन केन्द्र
सरकार को इस प्रकरण पर राजनीतिक नफे- नुकसान से बाहर निकल दोषियों के खिलाफ
सख्त कारवाई होनी चाहिए । इस पर दलीय संगठनों से सम्बद्ध छात्र राजनीति की
छाया नहीँ पड़नी चाहिय । इस मामले में जो भी दोषी हो उसे सजा मिले ।
क्योंकि यह देश के स्वभिमान और विद्रोह से जुड़ी घटना है । इस पर राजनीति
बंद होनी चाहिए । साक्ष्यों और विडिओ क्लिप के आधार पर सजा मिलनी चाहिए ।
गृहमंत्रालय और सरकार पर इस पर तटस्थ नीति की ज़रूरत है । दोषी छूटने भी
नहीँ चाहिए और निर्दोषों को सजा भी नहीँ होनी चाहिए ।