बस्ते की जगह कन्धे पर कबाड़ का बोरा

 जौनपुर।  इसे जागरूकता का अभाव कहें या सरकारी मशीनरी की अक्षमता। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े मा बाप की मजबूरी मानें कि जिन्हें नौनिहाल की पीठ पर किताबों का बैग लादकर स्कूल भेजना था उन्हीं कंधों पर कबाड़ बटोरने का बोरा लटकते देखना पड़ रहा है। साथ ही तमाम नाबालिग बच्चे होटल, ढाबों व निजी प्रतिष्ठानों में अपना बचपन गंवाते नजर आ ही जाते हैं। सरकार भले ही ऐसे लोगों के कल्याण के लिए तमाम योजनाएं चला रही हो, पर इसका लाभ श्रमिकों को नहीं मिल पाता है। जिसके दुष्परिणाम स्वरूप ऐसे परिवार पेट भरने के लिए मजबूरन अपने बच्चों को भी मजदूरी व अन्य पेशे में लगा देते हैं। नगर व ग्रामीण क्षेत्रों में तमाम बाल श्रमिक स्कूल जाने के उम्र में जोखिम भरे काम करते देखे जा सकते हैं। सरकारी अमले के अलावा तमाम सामाजिक संगठनों के प्रयास भी श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए नाकाम साबित हो रहे हैं। सरकार बड़े जोर शोर से स्कूल चलो अभियान चलाती है लेकिन हकीकत ठीक इसके विपरीत है। स्कूल जाने की अवस्था में छोटे बच्चों को जूठे बर्तन धोने पड़ते हैं और दिन भर हाड़तोड़ मजदूरी के एवज में उन्हें जो मिलता है उसके लिए मालिक के दुर्व्यवहार का सामना भी करना पड़ता है। नगर के शाहीपुल, पालिकटेकनिक चैराहा,पुरानी बाजार तिराहा के सामने मजदूरों का ऐसा ठिकाना है। जहां आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से सैकड़ों की तादाद में मजदूर रोजमर्रा मजदूरी की तलाश में आते हैं। कुशल व अकुशल श्रेणियों में बंटे हुए इन मजदूरों में कोई कारीगर तो कोई महज मिट्टी बजड़ी ढोने या फावड़ा चला कर अपना जीवनयापन कर रहा है। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी मजदूरों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है। गावों में सरकार द्वारा चलाई जा रही मनरेगा सरीखी तमाम योजनाएं इनके लिए बेमानी हैं। नगर के चैराहों पर मजदूरी की तलाश यह बात उजागर करती है कि ऐसी योजनाएं महज कागजी खानापूरी के लिए ही चलाई जा रही हैं।

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