राजनीति रोटी और रोजगार की ही चलेगी

 त्रिपुरा में एक भीड़ ने लेनिन की मूर्ति गिरा दिया । कुछ जिम्मेवार लोगो का कहना है कि विदेशी विचारधारा के लिए देश में जगह नहीं होनी चाहिए।
इस बात पर सैद्धांतिक बहस हो सकती है कि मार्क्सवाद किस हद तक विदेशी विचारधारा है या फिर किस हद तक भारत या दुनिया में प्रासंगिक है , इस बात पर भी बहस हो सकती है कि हम जिन विचारधाराओं को अपना मानते हैं, वे कितनी देशी या विदेशी हैं।लेकिन, कम से कम दो बातें ऐसी हैं, जिन पर बहस की गुंजाइश नहीं है। पहली बात तो यह कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में भीड़ को इस तरह मूर्तियां गिराने-ढहाने की छूट नहीं दी जा सकती - इसका समर्थन करना तो बिल्कुल अपराध है ।
ठीक है कि लेनिन भारतीय नहीं थे, लेकिन क्या वह सिर्फ रूस के थे...? जैसे क्या गांधी या बुद्ध सिर्फ भारत के हैं...? मदर टेरेसा कहां की थीं...? हिटलर भी सिर्फ जर्मनी का नहीं था, उसके कई प्रतिरूप दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में भी दिखाई पड़ते हैं । बहरहाल, देशी-विदेशी की इस बहस को कुछ और करीब से देखें. जिसे संसदीय लोकतंत्र कहते हैं, वह भी पश्चिम से आया है,जिस रूप में भी, जिस नाम से भी राजनीति चले, वह रोटी और रोज़गार की ही चलेगी.

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