गुरूकुली शिक्षा, उपनयन संस्कार जैसी परम्परा आज भी जीवित
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ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
हमारा भारतवर्ष संस्कार एवं संस्कृति वाला देश है। भारतवर्ष को विश्व गुरु की उपाधि कई कालखण्ड पूर्व से मिली हुई है, क्योंकि हमारा देश ऋषियों, मुनियों एवं तपस्वियों का देश है। संस्कार और संस्कृति की जननी भारत माता को माना जाता है। जन्म से मृत्यु तक और जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात के भी सभी कर्म विधि—विधान एवं कर्मकाण्ड भारतवर्ष में देखने, सुनने और पढ़ने के लिए मिलता है। हमारा ही देश संस्कार, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान से परिपूर्ण है। हमारे वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, रामचरित मानस सहित अनेकों ग्रंथ है। उपरोक्त यह स्पष्ट करते हैं कि भारत निश्चित रूप से प्रफुल्लित विश्व गुरु था जो पूरे विश्व को अपने ज्ञान से प्रकाशित करता रहा है। उस प्रकाश को अंधेरे में परिवर्तित करने हेतु तमाम तरह के उपद्रवियों द्वारा तमाम उपाय अन्य धर्म के लोगों द्वारा किये गये परंतु आज भी हमारी संस्कृति एवं संस्कार जीवित एवं प्रफुल्लित है जो जाजवल्य मान पर्वत सा अडिग है।
बताते चलें कि भारतवर्ष संस्कारों का देश है जो आज भी पूरे ब्रह्मांड में है जिसका कारण भारत के गुरुकुल की शिक्षा। पूर्व में आतंकियों द्वारा वेद विद्यालय को नष्ट किया गया परंतु आज भी हमारी संस्कृति एवं संस्कार सुरक्षित है। मनुष्य के जीवन काल में 16 संस्कार होते हैं जो क्रमशः गर्भाधान, पुंसवन, सीमानतो नयन, जाती कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारंभ, उपनयन, विद्यारम्भ, केशांत, समावर्तन, पाणिग्रहण एवं अंत्येष्टि संस्कार है। इनमें जन्म के पश्चात प्रमुख संस्कार के नाम पर नामकरण, विद्यारंभ, उपनयन (यज्ञोपवीत) पाणिग्रहण और अंत्येष्टि संस्कार को ही प्रमुखता से लोग जानते हैं और करते भी हैं। कहने में कत्तई गुरेज नहीं है कि 21वीं सदी पश्चिमी सभ्यताओं के होड़ में अब हमारे सनातनी भी अपने संस्कार व संस्कृतियों को ताख पर रखकर चलने लगे हैं परंतु संस्कार और संस्कृतियों के देश में आज भी कई प्रदेश और स्थानों पर अपनी संस्कृति को जीवित प्रफुल्लित लोग रखे हुए हैं।
ऐसी संस्कृति एवं सभ्यता को लेकर जौनपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्र तेजस टुडे की टीम प्रदेशस्तरीय भ्रमण करते हुये गोरखपुर पहुंची। टीम गोरखपुर के टांडा पहुंची जो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे हरिशंकर तिवारी का गांव है। इस दौरान देखा गया कि गांव में उपनयन संस्कार अर्थात यज्ञोपवीत संस्कार का कार्यक्रम बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। पहुंचने के पश्चात पता चला कि गांव कोल्हुवा टांडा में अध्ययन तिवारी पुत्र अमित तिवारी का यज्ञोपवित संस्कार हो रहा है। बता दें कि अमित तिवारी साउथ अफ्रीका (घाना) में लगभग दो दशक से चार्टर्ड अकाउंटेंट के पद पर कार्यरत हैं तथा उनके पिता राधेकृष्ण तिवारी उत्तर रेलवे में सीनियर वर्कशॉप इंचार्ज एवं उत्तर रेलवे मजदूर संघ प्रदेश अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। उनके घर में बड़े, बूढ़े, नौजवान लगभग सभी केंद्र और प्रदेश सरकार में सेवा दे रहे हैं परंतु उच्च शिक्षित परिवार विदेशों में अधिकांश लोगों के रहने के पश्चात भी परिवार के सभी लोग अपने धर्म, संस्कृति और संस्कार से बंधे हैं।
पूछे जाने पर अमित तिवारी ने बताया कि हम भारतीय हैं और हमारे परिवार में सनातन धर्म, संस्कृति, संस्कार कूट-कूट कर भरा है। हमें हमारे पूरे परिवार को गर्व है कि हमने अपनी भारत माता की गोद में जन्म लिया है। हम अपने धर्म, संस्कृति और संस्कारों से पूरी तरह सुसज्जित हैं। यही कारण है कि हम भारतीयों द्वारा साउथ अफ्रीका के (घाना) में भी एक विशाल शिवालय का निर्माण करवाया गया है। वहां पर 24 घण्टे वेद मंत्र, धर्म संसद, हवन, पूजन आदि कार्य चलता रहता है। श्री तिवारी ने बताया कि जिस प्रकार पूर्व में लोग अपने किशोर अर्थात बालकों को गुरुकुल में शिक्षा एवं उपनयन संस्कार हेतु गुरु की देख—रेख में भेजते थे, उसी प्रकार उसी परम्परा को जीवित रखने के लिये इस प्रकार के संस्कारों का हम सभी अपने गुरु के निर्देशन पर कार्य करते हैं।
उन्होंने कहा कि कभी भी एक किशोर का उपनयन संस्कार नहीं होता है। इसके लिए हम लोग अपने सगे— संबंधियों के बीच रहने वाले अन्य बालकों को एकत्रित करके जोड़े में ही उपनयन संस्कार का कार्यक्रम करते हैं। जैसा कि मेरे पुत्र अध्ययन तिवारी के साथ प्रियांशु मिश्र पुत्र स्व. कमलेश मिश्र कोलहुवा टांडा, अभी पांडेय व अंश पांडेय पुत्र स्व. मुन्ना पांडेय ग्राम मलाव गोरखपुर का भी उपनयन संस्कार हुआ। उपरोक्त चारों बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार एक ही मंडप में कराया गया। आचार्य और कुलगुरु के रूप में गोवर्धन पांडेय, उनके सहयोगी दिनेश तिवारी, अनिल तिवारी, शैलेंद्र तिवारी, ज्ञानेंद्र तिवारी, नरेंद्र तिवारी कोल्हुवा टांडा, अजय पांडेय, शशि पांडेय, कमलेश पांडेय, अवधेश पांडेय ग्राम मलाव आदि लोगों के विशेष सहयोग से यह कार्यक्रम संपादित कराया गया। साथ ही श्री तिवारी ने समस्त सनातनी बंधुओं का आह्वान किया कि हमारा सनातन धर्म सदैव पूजनीय रहा है, है और रहेगा। हम सभी सनातनी अपने संस्कार एवं भारत की संस्कृति को बढ़ाने के लिए सदैव तत्पर रहे।
उपनयन संस्कार का अर्थ क्या है?
उपनयन संस्कार में जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। "उपनयन' वैदिक परम्परा की अनुयायी आर्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार था। यह एक प्रकार का शुद्धिकरण (संस्करण) था जिसे करने से वैदिक वर्णव्यवस्था में व्यक्ति द्विजत्व को प्राप्त होता था (जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते) अर्थात् वह वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता है "नैकट्य प्रदान करना', क्योंकि इसके द्वारा वेदाध्ययन का इच्छुक व्यक्ति वेद-शास्रों में पारम्गत गुरु/आचार्य की शरण में जाकर एक विशेष अनुष्ठान के माध्यम से वेदाध्ययन की दीक्षा प्राप्त करता था। अर्थात् वेदाध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी को गुरु अपने संरक्षण में लेकर एक विशिष्ट अनुष्ठान द्वारा उसके शारीरिक एवं जन्म-जन्मान्तर दोषों/कुसंस्कारों का परिमार्जन कर उसमें वेदाध्ययन के लिये आवश्यक गुणों का आधार करता था, उसे एतदर्थ आवश्यक नियमों (व्रतों) की शिक्षा प्रदान करता था, इसलिये इस संस्कार को "व्रतबन्ध' भी कहा जाता था। फलतः अपने विद्यार्जन काल में उसे एक नियमबद्ध रुप में त्याग, तपस्या और कठिन अध्यवसाय का जीवन बिताना पड़ता था तथा श्रुति परम्परा से वैदिक विद्या में निष्णात होने पर समावर्तन संस्कार के उपरांत अपने भावी जीवन के लिये दिशा-निर्देश (दीक्षा) लेकर ही अपने घर आता था। उत्तरवर्ती कालों में यद्यपि वैदिक शिक्षा-पद्धति की परम्परा के विच्छिन्न हो जाने से यह एक परम्परा का अनुपालन मात्र रह गया है किन्तु पुरातन काल में इसका एक विशेष महत्व था।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।हमारा भारतवर्ष संस्कार एवं संस्कृति वाला देश है। भारतवर्ष को विश्व गुरु की उपाधि कई कालखण्ड पूर्व से मिली हुई है, क्योंकि हमारा देश ऋषियों, मुनियों एवं तपस्वियों का देश है। संस्कार और संस्कृति की जननी भारत माता को माना जाता है। जन्म से मृत्यु तक और जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात के भी सभी कर्म विधि—विधान एवं कर्मकाण्ड भारतवर्ष में देखने, सुनने और पढ़ने के लिए मिलता है। हमारा ही देश संस्कार, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान से परिपूर्ण है। हमारे वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, रामचरित मानस सहित अनेकों ग्रंथ है। उपरोक्त यह स्पष्ट करते हैं कि भारत निश्चित रूप से प्रफुल्लित विश्व गुरु था जो पूरे विश्व को अपने ज्ञान से प्रकाशित करता रहा है। उस प्रकाश को अंधेरे में परिवर्तित करने हेतु तमाम तरह के उपद्रवियों द्वारा तमाम उपाय अन्य धर्म के लोगों द्वारा किये गये परंतु आज भी हमारी संस्कृति एवं संस्कार जीवित एवं प्रफुल्लित है जो जाजवल्य मान पर्वत सा अडिग है।
बताते चलें कि भारतवर्ष संस्कारों का देश है जो आज भी पूरे ब्रह्मांड में है जिसका कारण भारत के गुरुकुल की शिक्षा। पूर्व में आतंकियों द्वारा वेद विद्यालय को नष्ट किया गया परंतु आज भी हमारी संस्कृति एवं संस्कार सुरक्षित है। मनुष्य के जीवन काल में 16 संस्कार होते हैं जो क्रमशः गर्भाधान, पुंसवन, सीमानतो नयन, जाती कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारंभ, उपनयन, विद्यारम्भ, केशांत, समावर्तन, पाणिग्रहण एवं अंत्येष्टि संस्कार है। इनमें जन्म के पश्चात प्रमुख संस्कार के नाम पर नामकरण, विद्यारंभ, उपनयन (यज्ञोपवीत) पाणिग्रहण और अंत्येष्टि संस्कार को ही प्रमुखता से लोग जानते हैं और करते भी हैं। कहने में कत्तई गुरेज नहीं है कि 21वीं सदी पश्चिमी सभ्यताओं के होड़ में अब हमारे सनातनी भी अपने संस्कार व संस्कृतियों को ताख पर रखकर चलने लगे हैं परंतु संस्कार और संस्कृतियों के देश में आज भी कई प्रदेश और स्थानों पर अपनी संस्कृति को जीवित प्रफुल्लित लोग रखे हुए हैं।
ऐसी संस्कृति एवं सभ्यता को लेकर जौनपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक समाचार पत्र तेजस टुडे की टीम प्रदेशस्तरीय भ्रमण करते हुये गोरखपुर पहुंची। टीम गोरखपुर के टांडा पहुंची जो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे हरिशंकर तिवारी का गांव है। इस दौरान देखा गया कि गांव में उपनयन संस्कार अर्थात यज्ञोपवीत संस्कार का कार्यक्रम बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। पहुंचने के पश्चात पता चला कि गांव कोल्हुवा टांडा में अध्ययन तिवारी पुत्र अमित तिवारी का यज्ञोपवित संस्कार हो रहा है। बता दें कि अमित तिवारी साउथ अफ्रीका (घाना) में लगभग दो दशक से चार्टर्ड अकाउंटेंट के पद पर कार्यरत हैं तथा उनके पिता राधेकृष्ण तिवारी उत्तर रेलवे में सीनियर वर्कशॉप इंचार्ज एवं उत्तर रेलवे मजदूर संघ प्रदेश अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। उनके घर में बड़े, बूढ़े, नौजवान लगभग सभी केंद्र और प्रदेश सरकार में सेवा दे रहे हैं परंतु उच्च शिक्षित परिवार विदेशों में अधिकांश लोगों के रहने के पश्चात भी परिवार के सभी लोग अपने धर्म, संस्कृति और संस्कार से बंधे हैं।
पूछे जाने पर अमित तिवारी ने बताया कि हम भारतीय हैं और हमारे परिवार में सनातन धर्म, संस्कृति, संस्कार कूट-कूट कर भरा है। हमें हमारे पूरे परिवार को गर्व है कि हमने अपनी भारत माता की गोद में जन्म लिया है। हम अपने धर्म, संस्कृति और संस्कारों से पूरी तरह सुसज्जित हैं। यही कारण है कि हम भारतीयों द्वारा साउथ अफ्रीका के (घाना) में भी एक विशाल शिवालय का निर्माण करवाया गया है। वहां पर 24 घण्टे वेद मंत्र, धर्म संसद, हवन, पूजन आदि कार्य चलता रहता है। श्री तिवारी ने बताया कि जिस प्रकार पूर्व में लोग अपने किशोर अर्थात बालकों को गुरुकुल में शिक्षा एवं उपनयन संस्कार हेतु गुरु की देख—रेख में भेजते थे, उसी प्रकार उसी परम्परा को जीवित रखने के लिये इस प्रकार के संस्कारों का हम सभी अपने गुरु के निर्देशन पर कार्य करते हैं।
उन्होंने कहा कि कभी भी एक किशोर का उपनयन संस्कार नहीं होता है। इसके लिए हम लोग अपने सगे— संबंधियों के बीच रहने वाले अन्य बालकों को एकत्रित करके जोड़े में ही उपनयन संस्कार का कार्यक्रम करते हैं। जैसा कि मेरे पुत्र अध्ययन तिवारी के साथ प्रियांशु मिश्र पुत्र स्व. कमलेश मिश्र कोलहुवा टांडा, अभी पांडेय व अंश पांडेय पुत्र स्व. मुन्ना पांडेय ग्राम मलाव गोरखपुर का भी उपनयन संस्कार हुआ। उपरोक्त चारों बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार एक ही मंडप में कराया गया। आचार्य और कुलगुरु के रूप में गोवर्धन पांडेय, उनके सहयोगी दिनेश तिवारी, अनिल तिवारी, शैलेंद्र तिवारी, ज्ञानेंद्र तिवारी, नरेंद्र तिवारी कोल्हुवा टांडा, अजय पांडेय, शशि पांडेय, कमलेश पांडेय, अवधेश पांडेय ग्राम मलाव आदि लोगों के विशेष सहयोग से यह कार्यक्रम संपादित कराया गया। साथ ही श्री तिवारी ने समस्त सनातनी बंधुओं का आह्वान किया कि हमारा सनातन धर्म सदैव पूजनीय रहा है, है और रहेगा। हम सभी सनातनी अपने संस्कार एवं भारत की संस्कृति को बढ़ाने के लिए सदैव तत्पर रहे।
उपनयन संस्कार का अर्थ क्या है?
उपनयन संस्कार में जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। "उपनयन' वैदिक परम्परा की अनुयायी आर्य संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संस्कार था। यह एक प्रकार का शुद्धिकरण (संस्करण) था जिसे करने से वैदिक वर्णव्यवस्था में व्यक्ति द्विजत्व को प्राप्त होता था (जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते) अर्थात् वह वेदाध्ययन का अधिकारी हो जाता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ होता है "नैकट्य प्रदान करना', क्योंकि इसके द्वारा वेदाध्ययन का इच्छुक व्यक्ति वेद-शास्रों में पारम्गत गुरु/आचार्य की शरण में जाकर एक विशेष अनुष्ठान के माध्यम से वेदाध्ययन की दीक्षा प्राप्त करता था। अर्थात् वेदाध्ययन के इच्छुक विद्यार्थी को गुरु अपने संरक्षण में लेकर एक विशिष्ट अनुष्ठान द्वारा उसके शारीरिक एवं जन्म-जन्मान्तर दोषों/कुसंस्कारों का परिमार्जन कर उसमें वेदाध्ययन के लिये आवश्यक गुणों का आधार करता था, उसे एतदर्थ आवश्यक नियमों (व्रतों) की शिक्षा प्रदान करता था, इसलिये इस संस्कार को "व्रतबन्ध' भी कहा जाता था। फलतः अपने विद्यार्जन काल में उसे एक नियमबद्ध रुप में त्याग, तपस्या और कठिन अध्यवसाय का जीवन बिताना पड़ता था तथा श्रुति परम्परा से वैदिक विद्या में निष्णात होने पर समावर्तन संस्कार के उपरांत अपने भावी जीवन के लिये दिशा-निर्देश (दीक्षा) लेकर ही अपने घर आता था। उत्तरवर्ती कालों में यद्यपि वैदिक शिक्षा-पद्धति की परम्परा के विच्छिन्न हो जाने से यह एक परम्परा का अनुपालन मात्र रह गया है किन्तु पुरातन काल में इसका एक विशेष महत्व था।