नौकरी नहीं तो स्टार्टअप सही? जौनपुर के युवाओं के लिए एक विकल्प या भ्रम
जौनपुर । दीवानी न्यायालय के अधिवक्ता डॉ. राजन तिवारी ने कहा कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में स्थित जौनपुर जनपद एक समय अपनी शिक्षा, संस्कृति और सामाजिक चेतना के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहां की आबादी में युवाओं की संख्या अच्छी-खासी है और शैक्षिक संस्थानों से हर वर्ष हजारों की संख्या में स्नातक और परास्नातक विद्यार्थी निकलते हैं। परंतु जब बात रोजगार की आती है, तो यह समृद्ध जनपद भी उसी राष्ट्रीय संकट का शिकार नजर आता है जो आज देश के अनेक अर्ध-शहरी और ग्रामीण जिलों की युवा पीढ़ी को खाए जा रहा है।
सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित है और जो अवसर निकलते भी हैं, वे वर्षों तक अधर में लटके रहते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की अनिश्चितताएं, आरक्षण की जटिलता और चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी ने युवाओं को एक गंभीर मानसिक दबाव में ला खड़ा किया है। निजी क्षेत्र की नौकरियों का यहां लगभग अभाव है। जौनपुर जैसे जिले में न तो कोई बड़ा औद्योगिक क्षेत्र है, न ही सेवा क्षेत्र का कोई ऐसा बुनियादी ढांचा जो व्यापक स्तर पर नौकरियों का सृजन कर सके। परिणामस्वरूप अधिकांश युवा या तो महानगरों की ओर पलायन करते हैं या बेरोजगारी की स्थिति में घर पर रहकर कुंठा के शिकार हो जाते हैं।
ऐसे माहौल में स्टार्टअप को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह विचार कागज पर जितना आकर्षक है, जमीन पर उतना ही चुनौतीपूर्ण। जौनपुर में स्टार्टअप संस्कृति अभी नवजात अवस्था में भी नहीं है। न तो यहां कोई इनक्यूबेशन सेंटर है, न ही नवाचार को प्रोत्साहित करने वाला कोई संस्थागत ढांचा। युवाओं के पास विचार तो हैं, लेकिन उन्हें स्वरूप देने के लिए न पूंजी है, न मार्गदर्शन, और न ही सामाजिक-परिवारिक समर्थन। यहां तक कि यदि कोई युवा साहस करके कोई छोटा व्यापार या सेवा शुरू भी करता है, तो उसे नौकरियों के समान सामाजिक मान्यता नहीं मिलती। विडंबना यह है कि पढ़ा-लिखा युवा अगर रोजगार के लिए चाय की दुकान भी खोलता है, तो समाज उसे विफल मानकर तिरस्कार की दृष्टि से देखता है।
स्टार्टअप को लेकर सरकार की अनेक योजनाएं हैं, लेकिन इन योजनाओं की पहुंच और प्रभावशीलता पर सवाल उठते रहे हैं। प्रधानमंत्री मुद्रा योजना या स्टार्टअप इंडिया जैसी योजनाएं तभी सफल हो सकती हैं जब ज़िले के स्तर पर भी उनके कार्यान्वयन के लिए कोई सशक्त ढांचा विकसित किया जाए। स्थानीय बैंकों में प्रक्रिया इतनी जटिल है कि अधिकांश युवा आवेदन ही नहीं कर पाते। तकनीकी मार्गदर्शन और बिजनेस मॉडल तैयार करने की व्यवस्था पूरी तरह से नदारद है। एक अधिवक्ता होने के नाते मैं अनुभव से कह सकता हूं कि कानूनी अड़चनें, पंजीयन, लाइसेंस और कर संबंधी व्यवस्थाएं भी छोटे व्यवसायों के लिए बाधा बनती हैं, विशेष रूप से तब जब उन्हें कोई सहायता या परामर्श नहीं मिलता।
हालांकि, जौनपुर में कुछेक युवाओं ने डिजिटल माध्यमों, ऑनलाइन शिक्षा, कृषि उत्पादों के विपणन या खानपान सेवाओं के जरिए छोटे-छोटे स्टार्टअप शुरू किए हैं। लेकिन इनकी संख्या इतनी सीमित है कि उन्हें प्रवृत्ति का नाम देना जल्दबाजी होगी। इन प्रयासों में आत्मनिर्भरता की भावना अवश्य है, परंतु समर्थन के अभाव में ये प्रयास सीमित दायरे से आगे नहीं बढ़ पा रहे।
सवाल यह है कि क्या जौनपुर जैसे ज़िले में स्टार्टअप को रोजगार का वास्तविक विकल्प माना जाए? या फिर यह शब्द केवल शहरी आकांक्षाओं का एक झुनझुना भर है जो ग्रामीण और अर्ध-शहरी युवाओं के हाथ में केवल उम्मीदें छोड़ता है?
यह स्पष्ट है कि स्टार्टअप की अवधारणा तभी सार्थक होगी जब उसे ज़मीनी समर्थन मिले। इसके लिए स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना, उद्यमिता से जुड़े पाठ्यक्रमों का प्रचार, वित्तीय संस्थाओं की जवाबदेही, तकनीकी सहायता, और सबसे बढ़कर सामाजिक सोच में परिवर्तन की आवश्यकता है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हर युवा को नौकरी देना संभव नहीं है, परंतु उसे आत्मनिर्भर बनने की दिशा में प्रशिक्षित किया जा सकता है।
जौनपुर का युवा अब सिर्फ़ आश्वासनों से संतुष्ट नहीं रहेगा। उसे अवसर चाहिए, मार्गदर्शन चाहिए और वह मंच चाहिए जहां वह अपने विचारों को कार्यरूप दे सके। यदि प्रशासन, शिक्षा संस्थान, स्थानीय निकाय और समाज मिलकर इस दिशा में कदम बढ़ाएं, तो जौनपुर का युवा न केवल अपना भविष्य रच सकेगा, बल्कि जिले को भी रोजगार देने वाले ज़िलों की श्रेणी में ला सकेगा। अन्यथा "स्टार्टअप" केवल एक शब्द बनकर रह जाएगा—आकर्षक, लेकिन खोखला।
डॉ. राजन तिवारी
अधिवक्ता
दीवानी न्यायालय, जौनपुर