ग्रामीण इलाकों में सामूहिकता की अलख जगाने में पाहुर का जोड़ नहीं

 

जौनपुर। जनपद के ग्रामीण इलाकों में आज भी पाहुर बदले दौर में सामूहिकता की अलख जगाने में बेजोड़ है। इसे कहीं पाहुर तो कहीं बायना बोलते हैं।शादी विवाह का सिलसिला अब चल चुका है ऐसे में ग्रामीण इलाकों में आये दिन किसी न किसी न किसी घर से पाहुर बांटने के लिए नाउन,कहाइन दउरी में लड्डू,खाजा,बताशा,मीठी पूड़ी या खोये छेने की बनी मिठाईयों को लेकर घर-घर दस्तक देना शुरू कर दी हैं।

 किसी मांगलिक कार्य के होने पर रिश्तेदारी से मिठाइयों और फलों की पूरी टोकरी आ जा रही है।इसे अकेले अपना ही परिवार खा सके यह सम्भव नहीं और कृषि प्रधान ग्रामीण समाज पास- पड़ोसियों को भी इसे न खिलाये यह भी सम्भव नहीं। शहरों में शायद ही कहीं इस प्रथा की गुंजाइश हो लेकिन गांव तो ठहरे गांव यहां आज भी बायना न बटे ऐसा कैसे  हो सकता है ? सोशल मीडिया के जमाने में जहां खुशियां केवल आभासी दुनिया में बांटी जाती हैं ऐसे में पाहुर खुशियों को बांटने बंटवाने का आफ लाइन माध्यम बना हुआ है। सर पर दउरी रखकर जैसे ही कहाइन घर में प्रवेश करती है बच्चें खिलखिलाते हुए कहाइन का जोरदार स्वागत करते हैं।यह विकास खंड मछलीशहर के  बामी गांव का दृश्य है जहां शनिवार की शाम बच्चे पाहुर पाते ही खाने में जुट गए हैं और किसके घर से पाहुर आया है इसकी पूरी इन्क्वायरी कर रहे हैं।

कहाइन सुनीता गौड़ कहती हैं कि पाहुर जो बटवाता है वह भी भेट के रूप में कुछ न कुछ देता ही है और जिसके घर लेकर जाती हूं वहां से भी कुछ न कुछ अनाज मिल जाता है।पाहुर की यह परम्परा सम्बन्धों की मिठास बढ़ाती ही है साथ में कहाइन घर- घर का हाल समाचार भी बताती जाती है। सीधे तौर पर आज के भाग दौड़ और मतलबी जमानें में नाक के सीध में देखने वाले भले ही  इस परम्परा को  कमतर समझें लेकिन आदान-प्रदान की इस परम्परा से लोग सामूहिकता के सूत्र में बंधते चले जाते हैं, इसे बस महसूस ही किया जा सकता है।न तो फेसबुक एकाउंट से बयां किया जा सकता है न ही बैंक एकाउंट में इसका मोल दर्ज किया जा सकता है।

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